March 29, 2014

खुद के लिए !

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वो कहते हैं
कुछ कर नहीं सकती ना
तो लिखती है
चंद शब्दों के जोड़ भाग में
वक़्त ही गुज़ार लेती है अपना ...

सही मायनों में
जानती हूँ मैं, कैसे
एक-एक याद पर जमीं ग़र्द झाड़
एक-एक छवि को
लफ्ज़ दे,
बचा रहीं हूँ “ खुद को “ ख़ाक होने से ...

सहेज़ रही हूँ
अपनी ज़िंदगी के
कंठ में गूँजते अलाप का

सबसे मीठा स्वर ...!! 


- अंकिता चौहान 

अंतिम अभिनय !

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“ पर मैंने तो तुम्हें,
तुम्हारे कहे हर शब्द को 
अक्षरशः सच मानकर जिया था,
क्या वो सब बेमानी था ? “

“ कहने के लिए मेरे पास
कुछ है नहीं और सुनना इतना ही
ज़रूरी है तो सुनो
मुझे प्यार नहीं है तुमसे..! “

उसकी आंखों में,
एक चुभता हुआ इंतज़ार छोड़
अपनी राह लौट आया मैं..
जैसे-जैसे मैं
मकान की सीढ़ीयाँ चढ़ रहा था,
कुछ पिघल रहा था सीने में..

जो दिल बर्फ हो चुका था उसके सामने
आंखों का रास्ता इख्तियार कर बहने लगा ।
सांसों ने जैसे मना कर दिया हो
मेरे साथ आने से,
रह् गयीं हो उसी के पास..

अपने ही हाथों खुद को कत्ल कर आया था आज,
ज़रूरी था !
कैसे समेट पाता सम्पूर्ण ज़ीवन को चंद पलों में,
चंद पलों में ही तो
गुज़र जाते है ना छः हफ्ते !
तीन दिनों से गूंजते डॉक्टर के शब्द अब ठहर गए..

खुद को हार आया मैं आज,
जो जीत चुका है, वो है...
मेरा रिश्ता,
इस ज़िंदगी को समर्पित

. . मेरा अंतिम अभिनय !!  


- अंकिता चौहान 

March 23, 2014

आदत भर है !!

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इन लफ्ज़ों के खेल को,
मुहब्बत का तमगा ना थमा...

इन फुरसत के लम्हों में छेड़े,  
साज़-ए-दिल्लगी को इश्तिहार ना बना...

जब तलक उसका नाम सुन
तेरी सांसों की रफ्तार न बढ़े,  
तुझे इश्क़ नहीं, इश्क़ की हसरत भर है...

जब तलक उसके ज़ज्बात
तेरी आंखों से ना बहें
तुझे इश्क़ नहीं, इश्क़ की गफ़लत भर है...

जब तलक उसकी हर खता
तेरे लिये अदा ना बनें,
तुझे इश्क़ नहीं, ‘उसकी’ आदत भर है ॥


- अंकिता चौहान 

पंखुड़ियाँ - 3

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1.

लौट कर इक बार फिर ..
अपने वादों को सच्चा कर, या
मेरी सांसों को झूठा कर जा ॥


2. 
दिल पर ज़ख्म
इस कदर दिये जाते हैं,
ज़िन्दगी चन्द लम्हों का
किस्सा हो जैसे ॥


3. 
हाथों की इन बेमानी लकीरों से
प्यार है मुझे,
ये उस वक़्त भी साथ थीं,
जब ज़रूरत थी तेरी ॥


4. 
ना पूछ कैसा आलम था
बिछड़ते हुए जब उसके दिल को,
मरहम दिया . . मेरे अश्कों ने ॥


5. 
कल रात फिर
तेरी यादों की महफिल सज़ी,
हर अश्क़ मेरा
तेरी हथेली को तरसा रात भर ॥


- अंकिता चौहान

March 20, 2014

तब याद करोगे


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दिन किसी अनचाहे मेहमान की तरह
जाने का नाम ही नहीं ले रहा,
टिक कर बैठ गया...

रात भी ना जाने किस
ट्राफिक जाम में फस गयी,
या इसने भी
ना आने के कई बहाने तलाश लिये...

और मध्यकड़ी बनी ये साँझ
स्मृतियों के आगे प्रश्नचिन्ह सा लगा रही हैं...

जैसे रेत पर उंगली से लिखा
इक खूबसूरत नाम मिट रहा हो
धीरे-धीरे...

जैसे समंदर की बेफिक्र लहरें
मेरी सांसों में उलझे इक शख्स को  
बहा ले जा रही हों, अपने साथ

ऐसी ही एक बुझती शाम,
अदा से कहा था तुमने-

“ नही रहूगीं ना, तब याद करोगे “

तुम्हे गया अरसा हुआ,
नामालुम क्यूँ !
उन लफ्ज़ों के दंश
आज भी आँखें सुर्ख कर जाते हैं...

हर रिश्ता दिल से निभाना आदत थी ना तुम्हारी,
बादस्तूर, अपना हर शब्द निभा जाना  
. . . क्या इतना जरूरी था !!


- अंकिता चौहान