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June 06, 2016

किताब समीक्षा: प्रेमचन्द की बस्ती – विजयदान देथा

शीर्षक: प्रेमचन्द की बस्ती
संपादक: विजयदान देथा
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
प्रकाशित वर्ष: 2009
पृष्ठ: 270
स्त्रोत: लाईब्रेरी
आईएसबीएन: 9789350000625

विजयदान देथा जिन्हें उनका पाठक वर्ग बिज्जी के नाम से जानता है, राजस्थान के हैं, लेकिन अपनी कहाँनियों को वो कुछ इस तरह बयाँ करते हैं कि वो किसी भू-खंड या काल-खंड में ना बंधकर हर पाठक के दिल तक पहुंचती है।  

भाषा की बात करें तो जबरदस्ती के कठिन शब्दों को ना जोड़कर वे बेहद सरल लिखते हैं और शायद यही लेखनी पाठक के मन को  लुभाती है। 

इनकी कई कहानियों और उपन्यासों पर सिनेमा जगत में काम हो चुका है, जिसे हम शाहरूख खान की पहेली कहते है, वो इन्ही की कहानी दुविधा पर आधारित थी, जिसपर दुविधा नाम से भी के एक फिल्म बन चुकी है, जिसको देखना बिल्कुल कहानी पढने जैसा है, चित्र टुकडो में चलते है, जैसे कोई हाथ से रील बदल रहा हो, और नरेशन पीछे से मिलता है, एक अलग ही अनुभव। 


हांलाकि "प्रमचंद की बस्ती" यह किताब विजय दान देथा जी ने नहीं लिखी, लेकिन संपादित तो की है, जिसमें उनकी, उनके काम की झलक मिल जाती है। किताब मुख्यतया प्रेमचन्द की कहानियों के पात्रों को लेकर लिखी गई है।


जैसा शीर्षक कहता है, प्रेमचंद की बस्ती, जहाँ उनके कुछ मुख्य उपन्यासों के हर एक पात्र के उपर कुछ लेखक अपनी राय रखते है, करेक्टर कैसे ग्रो करता है, कुछ कहानियों को शायद हम भूल भी जाए लेकिन उस पात्र को नहीं भुला पाते, यही लेखक की विजय होती है, प्रेमचंद के गोदान में धनिया को कौन भूल सकता है, और गबन की जलपा, उनकी कहानी शंतरंज के खिलाडी तो अपने कालखंड से कई आगे है, जिसे शायद कुछ ही लोग समझ पाएंगे, मीर शाहब और मिर्ज़ा साहब की बेतकल्लुफी को समझना कोई खेल तो नहीं है।



यहाँ इस किताब में गबन, गोदान, सेवासदन, प्रेमाश्रम, कायाकल्प, निर्मला, प्रतिज्ञा, रंगभूमि, कर्मभूमि, आदि के पात्रों का सज़ीव चित्रण किया गया है, उन पात्रों को गढते वक़्त प्रेमचंद जी की मनोदशा को, उनके लिखने की कला को समझने की कोशिश की है, यह कोई कहानियों की किताब नहीं है, इसे पढने के लिए, आपको पहले प्रेमचंद के साहित्य से होकर गुज़रना होगा, तब आप शायद इसके साथ कनेक्शन बैठा पाएं, और इसमें विजयदान देथा जी के अलावा ऐसे तो कई लेखकों ने अपनी राय रखी, लेकिन मन्नू भंडारी का लेख सबसे ज्यादा पंसद आया। उन्होंने धनिया के पात्र को फिर से जीवित कर दिया है, और उनके शब्दों को, करेक्टर आर्क को डिटेल में समझाने का तरीका दिल को छूता है। 

अगर आप सच में प्रेमचंद जी के पात्रों पर रिसर्च करने के इच्छुक है, उनके साहित्य को करीब से जानना चाहते है. तो ये समीक्षाओं से भरी किताब आपके ही लिए है।  



October 20, 2015

वरदान - प्रेमचन्द ( हिन्दी साहित्य)

टाइटल: वरदान
लेखक: प्रेमचन्द
पब्लिशर: मनीत प्रकाशन
रेटिंग: 4/5

गाँवो से आती माटी की सौंधी-सौधी खूशबू,  ग्रामीण अंचल के मध्य खिलते किरदार, उन किरदारों के मन की व्यथा तो कभी रिश्तों में जन्मी प्रगाड़ता... अगर इन सब मनभावों को करीब से महसूस करना है तो प्रेमचन्द जी का साहित्य पढ़िए। कभी कभी लगता है अगर प्रेमचन्द जी जिनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव है अगर कलम ना उठाते तो इस मशीनी युग के शोर में वो नीम के पेड़ के नीचे उपजा एक युग खो जाता। एक अरसे बाद भी प्रेमचन्द जी  के लेखन को उतना ही पंसद किया जा रहा है।

अब तक इनके क्लेक्शन से गोदान गबन निर्मला, मानसरोवर खंड, प्रतिज्ञा, कर्मभूमि, मनोरमा, कायाकल्प...पढ चुकी हूँ...और प्रेमचन्द जी की हर किताब दिल से पंसद भी की गई। गत दिनों वरदान पढ़ने का मौका मिला..जिसके किरदार इनती खूबसूरती से गढ़े गये हैं कि आप किताब के अंतिम पृष्ठ पर कब पहुंच जाते है पता ही नही चलता। साहित्य की एक शति जिनके नाम है उनके पात्रों द्वारा एक तरह से आप अपनी संस्कृति का अध्ययन करते हैं।

वरदान ऐसे  दो पात्रों की कहानी है जिनका बचपन साथ बितता है...साथ खेलना, रूठना मनाना, अपने मन में एक दूसरे की छवि एक रिश्ते की तरह बिठाना। ये स्वप्न मंदिर तब टूटता है जब विरजन की शादी अपने बचपन के साथी प्रताप से ना होकर एक कुलपति कमला, से हो जाती है। 
Loved this part 
विरजन का किरदार मुझे मुख्य लगा ..जैसा कि प्रेमचन्द जी की कई कहानियों में देखने को मिलता है। वो बेहद आसानी से स्त्री की मनोदशा को, मनोभावों को व्यक्त कर देते हैं। यहां भी विरजन पूरे कहानी के दौरान अपने कर्तव्य और मन में छुपे प्रेम के प्रति सांमजस्य बैठाती रही। अंत में विरजन विधवा हो जाती है और प्रताप जगत में प्रसिद्धि पाकर एक योगी बन जाता है जैसा कि उसकी माँ सुवामा उसके जन्म उपरांत वरदान मांगती है पर अंत में वही वरदान किताब का मुख्य सार है।  

यहाँ ये कहना आवश्यक है अगर अंत को थोड़ा स्प्रिचुअल मोड़ ना दिया होता तो किताब और ज्यादा रोचक हो जाती। मुझे ये किताब देवदास और गाईड का मिक्सचर लगी। अवश्य पढ़िए।  

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