टाइटल:
वरदान
लेखक:
प्रेमचन्द
पब्लिशर:
मनीत प्रकाशन
रेटिंग:
4/5
गाँवो
से आती माटी की सौंधी-सौधी खूशबू, ग्रामीण
अंचल के मध्य खिलते किरदार, उन किरदारों के मन की व्यथा तो कभी रिश्तों में जन्मी
प्रगाड़ता... अगर इन सब मनभावों को करीब से महसूस करना है तो प्रेमचन्द जी का
साहित्य पढ़िए। कभी कभी लगता है अगर प्रेमचन्द जी जिनका वास्तविक नाम “धनपत राय श्रीवास्तव” है अगर कलम ना उठाते तो इस मशीनी युग के
शोर में वो नीम के पेड़ के नीचे उपजा एक युग खो जाता। एक अरसे बाद भी प्रेमचन्द जी के लेखन को उतना ही पंसद किया जा रहा है।
अब
तक इनके क्लेक्शन से गोदान गबन निर्मला, मानसरोवर खंड, प्रतिज्ञा, कर्मभूमि, मनोरमा,
कायाकल्प...पढ चुकी हूँ...और प्रेमचन्द जी की हर किताब दिल से पंसद भी की गई। गत
दिनों वरदान पढ़ने का मौका मिला..जिसके किरदार इनती खूबसूरती से गढ़े गये हैं कि आप
किताब के अंतिम पृष्ठ पर कब पहुंच जाते है पता ही नही चलता। साहित्य की एक शति
जिनके नाम है उनके पात्रों द्वारा एक तरह से आप अपनी संस्कृति का अध्ययन करते हैं।
वरदान
ऐसे दो पात्रों की कहानी है जिनका बचपन
साथ बितता है...साथ खेलना, रूठना मनाना, अपने मन में एक दूसरे की छवि एक रिश्ते की
तरह बिठाना। ये स्वप्न मंदिर तब टूटता है जब विरजन की शादी अपने बचपन के साथी
प्रताप से ना होकर एक कुलपति कमला, से हो जाती है।
विरजन का किरदार मुझे मुख्य लगा
..जैसा कि प्रेमचन्द जी की कई कहानियों में देखने को मिलता है। वो बेहद आसानी से
स्त्री की मनोदशा को, मनोभावों को व्यक्त कर देते हैं। यहां भी विरजन पूरे कहानी
के दौरान अपने कर्तव्य और मन में छुपे प्रेम के प्रति सांमजस्य बैठाती रही। अंत में
विरजन विधवा हो जाती है और प्रताप जगत में प्रसिद्धि पाकर एक योगी बन जाता है जैसा
कि उसकी माँ सुवामा उसके जन्म उपरांत वरदान मांगती है पर अंत में वही वरदान किताब
का मुख्य सार है।
Loved this part |
यहाँ ये कहना आवश्यक है अगर अंत को थोड़ा स्प्रिचुअल मोड़ ना दिया
होता तो किताब और ज्यादा रोचक हो जाती। मुझे ये किताब देवदास और गाईड का मिक्सचर
लगी। अवश्य पढ़िए।