शीर्षक: रविन्द्रनाथ टैगोर की सम्पूर्ण
कहानियाँ
प्रकाशक: आर के पब्लिशर्स
प्रकाशित वर्ष: 2011
पृष्ठ: 280
स्त्रोत: लाईब्रेरी
आईएसबीएन: 9788188540938
टैगोर जी की कहानियों के बारे में कुछ भी
लिखें कम ही होगा, उनका अपना पाठक वर्ग नहीं है, बल्कि पाठक शब्द की नींव ही शायद
रवीन्द्रनाथ टैगोरजी ने रखी हो। बंगाली भाषा के श्रेष्ठतम कवियों में गिने जाने
वाले टैगोर जी को अगर उन्ही की भाषा में पढा जाए, तब कहीं हम उन्हें शायद पूरा पढ
पाए।
इस संग्रह में उनकी कई कहानियों को समेटा
गया है, ऐसा ही एक संग्रह पिछले साल पढ़ा था रविन्द्रनाथ टैगोर की शिक्षाप्रद कहानियाँ,
उस किताब में भी लगभग यही कहानियाँ थी लेकिन भाषा बेहद सरल और पढते वक्त प्रवाह
बनाने में सहायक थी। यहाँ इस किताब में यह कमी खलती है, हांलाकि हिन्दी को शुद्ध
रूप में ही पढा जाना चाहिए, लेकिन मन कठिन शब्दों में उलझ कर रह जाए तो कहानी अपना
अस्तित्व खोने लगती है।
कहानियाँ वहीं थी जो पिछली किताब में थीं
सिवाय एक कहानी “नष्ट नीड़” के, कहानी का सतही ना होना ही कारण है कि
टैगोर जी से हर वर्ग जुड़ जाता है। इस कहानी में भी अहसासों का पात्रो के साथ ऐसा
ताल मेल बिठाया गया है कि ये किताब की सबसे अच्छी कहानी के रूप में उभर कर आती है।
कहानी के मुख्य पात्र चारू का भोलापन, चारू के पति के छोटे भाई अमल का अनजान बने
रहना और चारू के पति भूपति की रिश्ते को, चारू को समझने की अपूर्व कोशिश। कहानी
में नरेशन पार्ट कम है, डायलाग्स ज्यादा तो कहानी आंखो के सामने चलती प्रतीत होती
है। अगर यह संग्रह कहीं हाथ लगे तो जरूर पढिएगा।
किताब के मुखपृष्ठ पर
रवीन्द्रनाथ ठाकुर (1861-1940) उन साहित्य-सृजकों में हैं, जिन्हें काल की परिधि में नहीं बाँधा जा
सकता। रचनाओं के परिमाण की दृष्टि से भी कम ही लेखक उनकी बराबरी कर सकते हैं।
उन्होंने एक हज़ार से भी अधिक कविताएँ लिखीं और दो हज़ार से भी अधिक गीतों की रचना
की।
इनके अलावा उन्होंने बहुत सारी कहानियाँ, उपन्यास, नाटक तथा धर्म,
शिक्षा, दर्शन, राजनीति
और साहित्य जैसे विविध विषयों से संबंधित निबंध लिखे। उनकी दृष्टि उन सभी विषयों
की ओर गई, जिनमें मनुष्य की अभिरुचि हो सकती है।
कृतियों के गुण-गत मूल्यांकन की दृष्टि से वे उस ऊँचाई तक पहुँचे थे, जहाँ कुछेक महान् रचनाकर ही पहुँचते हैं।
जब हम उनकी रचनाओं के विशाल क्षेत्र और महत्व का स्मरण करते हैं, तो इसमें तनिक आश्चर्य नहीं मालूम पड़ता
कि उनके प्रशंसक उन्हें अब तक का सबसे बड़ा साहित्य-स्रष्टा मानते हैं।
महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित रवीन्द्रनाथ ठाकुर भारत के विशिष्ट नाट्यकारों की भी अग्रणी पंक्ति में हैं। परंपरागत और आधुनिक समाज की विसंगतियों एवं विडंबनाओं को चित्रित करते हुए उनके नाटक व्यक्ति और संसार के बीच उपस्थित अयाचित समस्याओं के साथ संवाद करते हैं। परम्परागत संस्कृत नाटक से जुड़े और बृहत्तर बंगाल के रंगमंच और रंगकर्म के साथ निरंतर गतिशील लोकनाटक (जात्रा आदि) तथा व्यवसायिक रंगमंच तीनों संबद्ध होते हुए भी रवीन्द्रनाथ उन्हें अतिक्रान्त कर अपनी जटिल नाट्य-संरचना को बहुआयामी, निरंतर विकासमान और अंतरंग अनुभव से पुष्ट कर प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि राजा ओ रानी (1889), विसर्जन (1890), डाकघर (1912), नटीरपूजा (1926), रक्तकरबी (लाल कनेर), अचसायत (1912), शापमोचन (1931) चिरकुमार सभा (1926) आदि उनकी विशिष्ट नाट्य-कृतियाँ ने केवल बंगाल में, बल्कि देश-विदेश के रंगमंचो पर अनगिनत बार मंचित हो चुकी हैं।
महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित रवीन्द्रनाथ ठाकुर भारत के विशिष्ट नाट्यकारों की भी अग्रणी पंक्ति में हैं। परंपरागत और आधुनिक समाज की विसंगतियों एवं विडंबनाओं को चित्रित करते हुए उनके नाटक व्यक्ति और संसार के बीच उपस्थित अयाचित समस्याओं के साथ संवाद करते हैं। परम्परागत संस्कृत नाटक से जुड़े और बृहत्तर बंगाल के रंगमंच और रंगकर्म के साथ निरंतर गतिशील लोकनाटक (जात्रा आदि) तथा व्यवसायिक रंगमंच तीनों संबद्ध होते हुए भी रवीन्द्रनाथ उन्हें अतिक्रान्त कर अपनी जटिल नाट्य-संरचना को बहुआयामी, निरंतर विकासमान और अंतरंग अनुभव से पुष्ट कर प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि राजा ओ रानी (1889), विसर्जन (1890), डाकघर (1912), नटीरपूजा (1926), रक्तकरबी (लाल कनेर), अचसायत (1912), शापमोचन (1931) चिरकुमार सभा (1926) आदि उनकी विशिष्ट नाट्य-कृतियाँ ने केवल बंगाल में, बल्कि देश-विदेश के रंगमंचो पर अनगिनत बार मंचित हो चुकी हैं।