August 23, 2013

रुख़सत



दिलों से खेलती इस उलझन को
तू रुख़सत कर दे,
लबों पर ठहरी हुई इस अनबन को
तू अब रुख़सत कर दे ...

जवाब जब भी ढूँढेगा तू
तन्हाइयों के,
हज़ारों लम्स बिखर जाएगें
रुसवाईयों के,
खिलखिलाती ज़िन्दगी का
हर पल जी ले ज़ानिब,
बेरंग टूटे ख्वाबों को
तू अब रुख़सत कर दे ...

तेरे होने न होने का अर्थ
जो तुझसे खो सा गया,
ख्वाहिशों के पंख खुलने का स्वर
जो तुझसे खो सा गया,
समय की रेत पर
फिर नई इबारतें लिख ज़ानिब,
अतीत की टूटी इमारतों को
तू अब रुख़सत कर दे ...

ज़र्रे-ज़र्रे में बहता था जो
खुशफहमी बन,
बेमाने हर उस शक्स,
हर उस रिश्ते को
तू अब रुख़सत कर दे ...!!


- Ankita chauhan



August 16, 2013

लिखते हैं, तो जीते हैं

Photo Courtesy - Google



जब बहुत कुछ टूटता है अन्दर,
तब दर्द को लफ्ज़ों की दुशाला उड़ा
अभिव्यक्त करते हैं हम...

जब दिल की अर्ज़ियाँ ठुकरा दी जाती हैं
परिस्थितियों द्वारा,
तब कलम से उस क्षण को
शब्दों में कैद कर देते हैं हम...

जब हमारी सांसों में समाये ये रिश्ते ही हमसे
अपने वज़ूद का पता मांगते हैं,

तब अपने जैसे प्रत्येक बाशिन्दे का दर्द
अपने कागज़ी पंखों में भर
सुर्ख अँखियों में समा जाते हैं हम...

तुम्हारे रंज़-ओ-गम से उधड़ती
जीवन की रज़ाई को चंद हर्फों से सीते हैं,
हम लेखक हैं . . . लिखते हैं तो जीते हैं !!


   
 - Ankita Chauhan

P.s – Dedicated to all mesmerizing Writers.

August 12, 2013

मुरब्बा !



Photo Courtesy - Google
                                  
अधरों पर मुस्कान की एक झूठी परत चड़ाए  पार्क में बैठी,
मैं निहार रही थी प्रकृति को तभी एक छवि उभरी और
कुछ शब्द 
खर्च कर दीजिए 
इन खिलखिलाते लम्हों को 
ताउम्र सहेज कर
क्या इनका मुरब्बा बनाइयेगा !
 कैंसर से संघर्षरत वो मुस्कुराता हुआ शक्स 
ज़िन्दगी भर गया मेरे निर्जीव हो चुके लम्हों में... !!

- अंकिता चौहान             

August 07, 2013

सुनो अलविदा

Photo Courtesy



दिलकश कहकहों,
पायल की रुन-झुन झंकार लिये
आज विदा हो गयी वो ...

जैसे जीवन का सार चला गया
रोज़ सुबह उठकर,
भागती हुई ज़िन्दगी से निरंतर संघर्ष करने की
मानो प्रेरणा चली गयी हो ...

सामाजिक बुनावट कितनी ह्रदयहीन है !
जो बेटी अपनी प्रथम कदमताल के साथ
माँ के ममत्व रूप में प्राण डालती है,
उसे परायेपन का तमगा थमा
क्यूँ विदा कर देते हैं,
ये दकियानूसी रिवाज़ ...

इसी जद्दोजहद के बीच फँसी थी कि,
एक-एक कर परिचित भी जाते रहे ।
सिमट्ते रिश्तों के मांनिद
विवाह संस्कार भी सिमट गये थे
चंद पलों में ...

इतने शोरगुल के बाद घर में तैरती खामोशी,
अब चीरने लगी थी मेरी रगों को ...

एक दशक से
ज़ज्बातों को सम्भाले हुई थी स्वयं तक,
हौंसले का आँचल मजबूती से पकड़ा हुआ था
इन नाज़ुक हथेलियों ने ...

इस लम्बे अंतराल के बाद आज जब
अकेले में खुद से साक्षात्कार हुआ,
सब्र की हर लकीर ध्वस्त हो गयी
सावन की रिमझिम झड़ी सी लग गयी,
मानो जैसे अश्क भी
सदियों से
उन्मुक्त प्रवाह के इंतज़ार में थे ...

कदम पास टंगे आईने की ओर बढे
पहचान नही पायी खुद को,
ज़िंदगी का गणित सुलझाते हुए
कुछ खो गया था शायद मुझसे ...

हाथ स्वतः ही चेहरे को सहलाने लगे
सब कुछ पत्थर हो चुका था ...
तुम थे
तो खुद को महसूस किया करती थी,
तुम्हारी साँसों का
मेरी साँसों में गुंथा हुआ संगीत सुना करती थी ...

मेरे अस्तित्व का रेज़ा रेज़ा
अलमारी में बेतरतीब फैले कपड़ों के बीच
कुछ टटोलने लगा,
हाथ लगे
एक पुराना एलबम और प्यार भरे अभिलेख,
इन्हे सीने से लगाये कुछ सिकुड़ सी गयी मैं
मेरे ख्वाबों की तरह ...

बीते लम्हों के निशां
आँखों के आगे विस्तार लेने लगे,
जाने कब तुम
इस यादों की एलबम का हिस्सा हो गये  
हर तस्वीर जीवित होना चाहती थी
तुम्हारी ये बावली
हर उस पल को फिर मुक्कमिल जीना चाहती थी ...

मुठ्ठीयों को बाँध
आँखों से अनवरत बहते अश्कों को
रोकने की एक मासूम कोशिश,
पर नहीं दबा सकी उस चीख को
शायद पहली बार
सच को घोल कर पी रही थी ...

स्मरण करना चाह रही थी
हर उस बन्दे को
जो मुझपे साहसी होने का
ठप्पा लगा चलता बना ...

शायद भुला दिया था मैंने उसी पल की
इस मज़बूत किरदार के पीछे
एक बेबस ह्रदय,
जिसका टूट्ना, पल-पल रोना स्वभाविक है
जब कोई अपना बिछड़ जाए ...

आज ये समुद्री पत्थर
फिर अब्र होने की चाह् लिए  
सिमट गया खुद में ...

आज बेटी के साथ-साथ
एक अरसे से अपने भीतर कैद
शोक,
तुम्हारे वज़ूद की भी विदाई थी ...

क्या तुम वाकई नहीं हो अब ..?
आँखें दर को
इस कदर तकने लगी,
जैसे किसी झरोखे से झाँक रहा हो
तुम्हारा कोई अटूट वादा ...

खिड़की के पास जा खड़ी हुई
बादलों में तुम्हारे नक्श तलाशते हुए,
लुढकता हुआ अंतिम आँसू,
धड़कन स्थिर
दो लफ्ज़ ...

“ सुनो अलविदा ...!!”



- अंकिता चौहान