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September 29, 2020

शिवानी के तीन उपन्यास: कालिन्दी, सुरंगमा, और श्मशान चम्पा

 


बीते कुछ महीनों से शिवानी जी की किताबें पढ़ रही हूँ। अपने जीवन-काल में उन्होनें हिन्दी साहित्य के लिए बहुत काम किया। शिवानी द्वारा गढ़े पात्रों की जीवन यात्रा से गुजरकर ये महसूस किया कि स्त्री संवेदना पर लिखी उनकी किताबों को एक के बाद पढ़ते जाना एक नशा ही है। शिवानी का लिखा मुझे किसी अल्पना सा लगता है, एक पात्र के जीवन से कैसे नया पात्र आत्मीय तरीके से जुड़ता है, और कहानी में नई परत खुलती है जो आगे जुडते हर पात्र के साथ पाठक के मन में जिज्ञासा पैदा करती है।

शिवानी ने ना किसी स्तर विशेष के लिए लिखा ना ही किसी एक विधि में, उनके पात्र कस्बों से लेकर महानगर के जीवन का अनुभव करते हैं, घरेलू जिंदगी से लेकर राजनीतिक जिंदगी का झरोखा दिखाते हैं, किरदारों की यही विविधता शिवानी के विशाल साहित्य को अत्यंत पठनीय बनाती है।

इसके पहले भी मैं उनके दो उपन्यास, चौदह फेरे और अतिथि के बारे में अपने ब्लोग पर लिख चुकी हूँ, यहाँ उसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए शिवानी के कुछ और उपन्यासों का जिक्र करती हूँ।




कालिंदी

शिवानी के उपन्यास ‘कालिंदी’ में मुख्य किरदार डॉ कालिंदी एक आत्मनिर्भर लड़की है, जो जिंदगी में आई मुश्किलात से अकेले ही लड़ती आ रही है, अल्मोड़ा और कुमाऊँ अंचल के दृश्यों से सजा ये उपन्यास जहां कालिंदी जैसे सशक्त किरदार को आधुनिकता की सीढ़ी चढ़ते दिखाता है वहीं अपनी जड़ो के लिए उसके लगाव को भी बखूबी पेश करता है, अपने आत्मसम्मान को ऊपर रखकर कालिंदी जिंदगी के कुछ ऐसे निर्णय लेती है जो उसकी जीवन राहों को ऊबड़-खाबड़ बना जाते हैं, एक लड़की आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने पर भी समाज की उन पुरानी मान्यताओं के चलते कितनी विवश होती है, जीवन का यही पहलू दर्शाता नॉवेल है कालिंदी

कैसा अद्भुत शहर था तब अल्मोड़ा! नवजात शिशु की देह से जैसी मीठी-मीठी खुशबू आती है, वैसी ही देहपरिमल थी उस शहर की। देहरी में गुलाबी धूप उतरते ही दादी कटोरी में गर्म तेल लेकर, दोनों पैर पसार उस पर उसकी नग्न गुलगोथनी पुत्री को लिटा, रगड़-रगड़कर उबटन लगातीं,

अरी अन्ना, दान किए हैं तूने, ऐसी सुन्दरी राजरानी चेहड़ी (लड़की) को जन्म दिया है-ऐनमैन अपनी नानी पर गई है, ऐसा ही दूध का सा उजला रंग था तेरी माँ का, पर तेरे बाप ने इसका नाम कालिंदी क्या देखकर रखा? कालिंदी का जल तो काला होता है, क्यों? और फिर हमारे यहाँ कहते हैं, लड़की का नाम नदी या नक्षत्र पर नहीं रखना चाहिए, कमला रख दे इसका नाम साक्षात कमला ही है।क्या नाम बदलने से ही लड़की का भाग्य बदल जाता ?”



सुरंगमा  

शिवानी का उपन्यास सुरंगमा उनके अन्य उपन्यासों की ही तरह स्त्री किरदार के दूसरे पहलू की झलक लिए है, किताब की शुरुवात में सुरंगमा को एक मिनिस्टर के घर पर कुछ हिचकिचाहट के साथ खड़ा दिखाते हैं, प्रयोजन है मंत्री की बेटी के लिए ट्यूशन टीचर के तौर पर काम करना, दोनों तरफ से बात न बनते हुए भी बन जाती है, सुरंगमा जो एक बैंक में काम करती है, ये ट्यूशन का काम अपनी आर्थिक स्थिति के चलते करना मंजूर कर लेती है, अपने माता-पिता के आपसी रिश्तों का सुरंगमा के मन पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वो ताउम्र विवाह की डोर में ना बंधने का फैसला लेती है लेकिन  मंत्री जी के सामने उसके सारे फैसले जैसे विवश हो जाते हैं, अपने आत्मसम्मान को बनाए रखते हुए वो क्यूँ इस रिश्ते में पड़ती है? अपने पिता की सारी कमियों के वाबजूद वो क्यूँ उनसे नफरत नहीं कर पाती? शिवानी के द्वारा रचा ये किरदार वाकई एक ग्रे शेड लिए है, फिर भी मन में ठहरता है, सुरंगमा से ज्यादा उनकी माँ का जीवन भी कितना विचित्र है, एक शाही परिवार में जन्म लेने के बावजूद जिंदगी भर असहाय बने रहना , अपने से दुगनी उम्र के म्यूजिक ट्यूटर के साथ भाग के शादी करना और फिर वहाँ से भाग कर, एक ईसाई की शरण पाना, जिंदगी कितनी उलझनों भरी होकर भी एक आस साथ लिए चलती है, शिवानी के पात्र यही सीखाते हैं, हार को परे ढकेल,  हम कैसे दोहरा जीवन जीते चले जाते हैं?

“नाम तो आपका बड़ा सुन्दर है मिस जोशी, ऐसे नाम तो पहाड़ियों में कम होते हैं। मैं भी पहाड़ी हूँ, शायद आप जानती होंगी! क्यों?

वह फिर हँसा, उसकी हँसी प्रत्येक बार उसके ग्लान चेहरे पर सौ पावर का बल्ब-सा जला जाती थी। किन्तु पहली हँसी से कितनी भिन्न थी यह दूसरी हँसी! लाल क्लान्त आँखों का घेरा भी उस हँसी ने ऐसे संकुचित कर दिया कि एक पल को सुरंगमा को लगा, उसकी आँख भी हँसी से सवेरे प्रश्न के साथ-साथ कुटिल भंगिमा में मुँद गई है! उसका कलेजा काँप उठा, यह तेज नरपुंगव का था या नरभक्षी का!

‘जी, मेरे पिता पहाड़ी हैं, माँ बंगाली थीं,’कहने के साथ ही उसकी हथेलियाँ पसीने से तर हो गईं। एक माह पूर्व यह प्रश्न पूछा जाता तो उत्तर यह नहीं होता माँ के लिए तब वह क्या भूतकाल का प्रयोग करती? किन्तु माँ होती तो वह इस अवांछित इंटरव्यू के लिए यहाँ आती ही क्यों?


       

श्मशान चम्पा

शिवानी का उपन्यास श्मशान चम्पा, अपने शीर्षक से ही बहुत कुछ कहता है, ये एक मार्मिक कहानी है, मुख्य किरदार चम्पा आत्मविश्वासी होने के बावजूद जिंदगी में अनिश्चय की गांठ नहीं सुलझा पाती, असली जंग पिता की मृत्यु के बाद शुरू होती है, छोटी बहन से मिला झटका उसको तोड़ देता है वो एक एकांत की तलाश में घर से दूर चली जाती है जहां उसे कोई नहीं पहचानता, लेकिन उसका अतीत वहाँ भी उसका पीछा नहीं छोडता, उसकी नियति उसके लिए नित नए शिलाखंड तैयार करती दिखती है, ये एक छोटा उपन्यास है लेकिन कहानी की खूबसूरती इसके आकार से बिलकुल प्रभावित नहीं होती, अंत सुखद न होने के बावजूद शिवानी का ये उपन्यास बेहतरीन है और दिल में जगह बनाता है।

‘क्या देख रही हो ऐसे ममी?’ हँसकर उसने पूछा तो भगवती ने यत्न से ही अपनी सिसकी को रोक लिया था। कैसा अपूर्व रूप था इस लड़की का! न हाथ में चूड़ियाँ, न ललाट पर बिन्दी, बिना किनारे की सफेद लेस लगी साड़ी और दुबली कलाई पर मर्दाना घड़ी, यही तो उसका श्रृंगार था, फिर ही जब यहाँ अपनी पहली नौकरी का कार्यभार सँभालने आई तो स्टेशन पर लेने आए नारायण सेनगुप्त ने हाथ जोड़कर भगवती को ही नई डाक्टरनी समझ सम्बोधित किया था, ‘‘बड़ी कृपा की आपने, इतनी दूर हमारे इस शहर में तो बाहर की कोई डाक्टरनी आने को राज़ी ही नहीं होती थीं। एक दो आईं भी तो टिकी नहीं। पर आपको विश्वास दिलाता हूँ, हम आपको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देंगे’  

‘डाक्टरनी मैं नहीं हूँ, मेरी पुत्री चंपा आपके अस्पताल का चार्ज लेगी।हँसकर भगवती ने कहा, तो सेनगुप्त उसकी ओर अविश्वास से देखते ही रह गए थे। यह लड़की क्या उनके उस विराट अस्पताल का भार सँभाल पाएगी? एक-एक दिन में कभी सात-आठ लेबर केसेज़ निबटाने पड़ते थे पिछली डॉक्टरनी को, इससे वहाँ कोई टिकती ही नहीं थी और फिर क्या उस सुन्दरी डॉक्टरनी का मन उसे रूखे शहर में लग सकता था? किन्तु चंपा को तो ऐसे ही जनशून्य एकान्त की कामना थी। उसे वह अपना छोटा-सा बँगला बेहद प्यारा लगा था। छोटे-से अहाते में धरे क्रोटन के गमले, लॉन में बिछी मखमली दूब और एक-दूसरे के गुँथे खड़े दो ताड़ के वृक्षों की सुदीर्घ छाया ! पास में ही दूसरा बँगला था डॉक्टर मिनती घोष का। वही उसकी सहायिका डॉक्टरनी थी। बड़ी-बड़ी आंखें, बड़े-बड़े जूते और विकसित देहयष्टि, उस रोबदार डॉक्टरनी के सम्मुख चंपा और भी बच्ची लगती थी’  

शिवानी की किताबें किसी एडिक्शन जैसी है वहीं मुझे उनकी कहानियों में सिर्फ एक बात खलती है जो शायद उस वक्त में सामान्य मालूम होती होगी, कहानी के किरदारों का शारीरिक वर्णन, अगर स्टीरियोटाईपिंग के उस पहलू को नजरंदाज कर दें तो शिवानी का लिखा एक जादू जैसा है, जिसके मोहपाश से हिन्दी पाठक बच ही नहीं सकता।

December 05, 2019

शिवानी के दो उपन्यास: चौदह फेरे और अतिथि




कुमाऊँ की पहाड़ियों का जिक्र आते ही मन में शिवानी का नाम गूंजने लगता है, जैसे ये दोनों एक दूसरे के पूरक हों। गौरापांत शिवानी उत्तराखंड की लेखिका के तौर पर हिन्दी साहित्य में अपना अलग मुकाम रखती हैं, उनका लिखा पाठक को सम्मोहन में बांधता है, उनके नारी पात्र विस्मित कर जाते हैं, सहज और पारदर्शी भाषा, जैसे आकाश में बहते उजले बादल, पात्रों के अन्तर्मन की उड़ान जैसे धवल सारस।

उनके लिखे से मेरा परिचय उपहार स्वरूप मिली किताब “चल खुसरो घर आपने से हुआ, साधारण परिवेश में पले-बढ़े पात्रों के बावजूद उनका संसार व्यापक है, हर पात्र एक यात्रा पर होता है, यात्रा जो मन के अंदर चलती है, भावुक और संवेदनशील होने के साथ उनके नारीपात्र स्वाभिमानी होते हैं, अपने जीवन मूल्यों को तजरीह देते हुए वो संघर्ष से कतराते नहीं, आजाद खयाल और अपनी जड़ों से जुड़ाव को शिवानी जी ने अपने पात्रों के जरिए क्या खूब उकेरा है, वो चेहरे के भावों का भी इतना सजीव चित्रण करती हैं जितना आस पास के वातावरण का, जैसे मधुबनी पेंटिग्स का कलाकार बारीक काम करता है उसी तरह छोटी छोटी डिटैल पढ़कर लगता है जैसे ये सिर्फ कहानियाँ नहीं, जीती जागती दुनिया हो, जो हमारे अस्तित्व से परे भले है लेकिन कहीं न कहीं अपना वजूद रखती है, यही भरोसा शिवानी जी के लेखन को असीम ऊंचाई पर खड़ा करता है, आम बोली की मिठास लिए उनके पात्र मन में घर कर जाते हैं, किस्सागोई में पारंगत शिवानी जी की दो दर्जन भर किताबों में से मुझे चल खुसरो घर आपने, मायापुरी, चौदह फेरे और अतिथि पढ़ने का अवसर मिला, कृष्णकली और बाकी उपन्यासों को भविष्य में जरूर पढ़ना चाहूंगी। यहाँ हाल ही में पढे दो उपन्यासों का जिक्र कर रही हूँ, जो मुझे बेहद पसंद आए।

चौदह फेरे



“ऐसी ही भारत की रहस्यमयी रोप ट्रिक-सी है तुम्हारी सखी अहल्या । उसके स्वभाव का कौन-सा भाग सत्य है और कौन मिथ्या, यह मेरे लिए एक अबूझ पहेली ही रही है। । कभी वह अनोखी आत्मीयता से निकट खिंच आती है और दूसरे ही क्षण कटी पतंग की तरह हवा में दूर उड़ जाती है”

शिवानी जी को ख्याति इसी उपन्यास से मिली, चौदह फेरे एपिसोड्स के रूप में सबसे पहले धर्मयुग पत्रिका में छपना शुरू हुआ था, किताब का शीर्षक पाठक के मन में जिज्ञासा पैदा करता है जिसका मर्म किताब के आखिर में पता चलता है, चौदह फेरे की मुख्य पात्र अहिल्या का जन्म अलमोड़े में होता है लेकिन परिस्थितियों के चलते उसके पिता उसे बोर्डिंग स्कूल, ऊंटी भेज देते है।

माँ से बचपन में ही अलग हो जाने वाली अहिल्या अपने पिता की एक महिला दोस्त, मल्लिका की संगत में रहकर बड़ी होती है, मॉडर्न परिवेश में पाली अहिल्या का रिश्ता उसके पिता अपने ही समाज में करना चाहते हैं, वो बिटिया को किसी बेशकीमती हीरे सा छुपाए, अपने कुमाऊँ अंचल में लौटते हैं, वहीं से अहिल्या की जिंदगी में नया मोड़ आता है, नए पात्रों का जिंदगी में आना, अनछुए एहसासों का मन में जगह बनाना, हिमालय जाकर एक आश्रम में वासित अपनी माँ से मिलना, प्यार के कहे-अनकहे के बीच अपने मन को समझाना, प्यार में पड़े दिल की उलझनें, और उन्हे सुलझाने की कोशिश, शिवानी जी ने अल्हड़ खूबसूरती से रचा है ये उपन्यास “चौदह फेरे”

अतिथि 



शिवानी जी के उपन्यास अतिथि का कथानक शुरुवात में किसी बॉलीवुड मूवी का भ्रम देता है लेकिन धीरे धीरे इसकी प्याजी परतें खुलती है और पाठक का मन ऊन के गोले सा पात्रों के साथ बंधता चला जाता है, इस उपन्यास की मुख्य पात्र जया सरल और स्वाभिमानी लड़की है, सरकारी मास्टर की बेटी आत्म-सम्मान को सर्वोपरि मानती है।

जया के कॉलेज में हुए एक जलसे के दौरान, प्रदेश के मंत्री माधव  बाबू  जो की जया के पिता के बचपन के साथी भी थे, जया को देखते है और मन ही मन उसे अपने बेटे कार्तिक के लिए पसंद कर लेते हैं, माधव बाबू के घर में एक गरीब घर की बेटी लाने के उनके विचार पर शीत युद्ध सा छिड़ जाता है, माधव जी बिना किसी की परवाह किए, बिना बाह्य आडंबर के जया को शादी कर अपने घर ले आते हैं, जया के परिवार वाले शुरू में इस रिश्ते को पसंद नहीं करते, कार्तिक के चरित्र को लेकर जो अपवाहें फैली हैं उससे उनका मन संशय से भरा रहता है, लेकिन माधव जी के यकीन दिलाने और कार्तिक का बार बार जया से मिलने की कोशिशें, इस रिश्ते को एक जमीन दे देतीं है, माधव बाबू के घर के सदस्यों की रजामंदी न होने पर जया को कैसे अपने ससुराल में नीचा देखना पड़ता है कैसे वो स्वाभिमानी लड़की अपने वजूद के टुकड़े समेटे आगे की जिंदगी की राह खुद तलाशती है, कैसे माधव जी को जानते बूझते की गई अपनी गलती का पश्चाताप होता है। उपन्यास का हर एक पात्र जीवंत हर एक एहसास जिया हुआ महसूस होता है, शिवानी की दुनिया जितनी स्वाभाविक है उतनी ही संघर्षों से भरी, यहाँ दुख है और अकेलापन भी, इसके बावजूद कोई भी पात्र बेबस लाचार नहीं है, अपनी जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीना जानता है, जहां संस्कारों को मानता है, वहीं बेबुनियाद रूढ़ियों को तोड़ता भी है।  

राजनैतिक कलह, पारिवारिक मनमुटाव और दो विपरीत विचारधारा वालें लोगों का मेल, इनही ताने-बानो के बीच बुना है शिवानी का ये उपन्यास “अतिथि”

चौदह फेरे और अतिथि दोनों ही उपन्यास राधाकृष्ण प्रकाशन से हैं, साथ ही किंडल वर्जन में भी उपलब्ध हैं।