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दिन किसी अनचाहे
मेहमान की तरह
जाने का नाम ही नहीं
ले रहा,
टिक कर बैठ गया...
रात भी ना जाने किस
ट्राफिक जाम में फस
गयी,
या इसने भी
ना आने के कई बहाने
तलाश लिये...
और मध्यकड़ी बनी ये साँझ
स्मृतियों के आगे
प्रश्नचिन्ह सा लगा रही हैं...
जैसे रेत पर उंगली
से लिखा
इक खूबसूरत नाम मिट
रहा हो
धीरे-धीरे...
जैसे समंदर की बेफिक्र
लहरें
मेरी सांसों में
उलझे इक शख्स को
बहा ले जा रही हों,
अपने साथ
ऐसी ही एक बुझती शाम,
अदा से कहा था तुमने-
“ नही रहूगीं ना, तब
याद करोगे “
तुम्हे गया अरसा हुआ,
नामालुम क्यूँ !
उन लफ्ज़ों के दंश
आज भी आँखें सुर्ख
कर जाते हैं...
हर रिश्ता दिल से
निभाना आदत थी ना तुम्हारी,
बादस्तूर, अपना हर शब्द
निभा जाना
. . . क्या इतना जरूरी था
!!
- अंकिता चौहान