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बेपरवाह बहती मेरी
ज़िंदगी में,
जब दस्तक दी
उसके नाज़ुक कदमों ने
तो सांसें यकायक
ठहराव पा गयीं...
मेरे व्यक्तित्व का
एक सिरा
जैसे रिहा कर रहा हो
मुझे
और दूसरे सिरे पर
नवीन रिश्ता बाहें
फैलाए
पुकार रहा हो ..
बीच में अटका हुआ सा
एक प्रश्न
सम्हाल भी पाऊगीं मैं
उस मासूम से एहसास
को...!
असहज़ हो मैं
अपलक तक रही थी
मेरे चारों तरफ़ चेहरों
पर
गूंजती बेतहाशा खुशी
को
और
जब पहली बार
रूई के फ़ाहे सी
ज़िंदगी को मैंने
अपने सजल गालों से
छुआ,
मेरे अस्तित्व में
एक
नई संज्ञा (माँ) का
जन्म हुआ...
दरअसल,
आज मेरे अपनों की
हर इक अर्ज़ी मंज़ूर
हुई है,
मेरे सूने चितवन में
एक नन्ही-सी
उम्मीद हुई है...!!
- अंकिता चौहान