May 30, 2014

नफ़्ज़ में बहते रिश्ते !

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ऐ ज़िन्दगी,
तेरी रहगुज़र में,
दूर तलक
ज़ुल्मत के साये..

कौन है अपना
कौन बेगाना,
इसमें दय़ार गुजरती जाए..

उनकी तल्खियों को 
हम 
कुछ खामोश करें यूं,
के गैरों से खफ़ा हो जाऐं..

क्या कीजे
जब
नफ़्ज़ में बहते रिश्ते ही
बेहिस हो जाऐं..!!


रहगुज़र- रास्ता , ज़ुल्मत- अंधेरा , दय़ार- ज़िंदगी , तल्खियों- कड़वाहट ,
खफ़ा- रूठना , बेहिस- संवेदना शून्य ॥



- अंकिता चौहान