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रसोई के एक कोने पर
शान से टंगी
किसी सुरीले वाद्य
यंत्र-सी
वो पीतल की कड़ाई
जिसमें नानी माँ
प्रतिदिन
अपने शौक पकाया
करतीं...
फिर संध्या समय,
आंगन में खड़े नीम की
शीतल छाया में बैठ,
उस स्याह पड़ चुकी
कड़ाई को
घंटे भर तक मांजा
करतीं...
तब, उनके मासूम और
निश्छल चेहरे में
सुहानी ब्यार सी
प्रसन्नता,
होंठों पर कई धुनों
की तल्लीनता होती
औ’ आंखों पर पड़ा
होता,
हया से लबरेज़
एक महीन सा घूंघट...
पूछा था मैंने इक
बार
ये रोज़ रोज़ की जद्दो
जहद क्यूँ ?
उनके धुन सजे लबों
पर
मुस्कान तैर गयी...
अब जब भी उनकी यादें
मेरे अवचेतन मन की
सतहों में गूंजती हैं,
उनके व्यक्तित्व का
एक नया ही पहलू प्रस्तुत
करती हैं,
कि कैसे
नानी माँ कुछ क्षणों
के लिए
अपनी व्यस्त्तता से
अनभिज्ञ हो,
खुद को करीब से जिया
करती थी...
शायद
एक और मीरा
कुछ क्षणों के लिए
अपने लौकिक जीवन पर
विराम लगा
उस पीतल की कड़ाई की
आड़ में,
अपने अंतस में बसे कान्हा
की
निर्मल स्तुति किया
करती थी !!
- अंकिता चौहान