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एक अच्छी कहानी हमारे भीतर ठहरे कई विश्वासों को चुनौती देती है, सवाल खड़े करती है, सोच के स्तर पर इंसान को पूरी तरह बदल देने का जज़्बा रखती है।
मनीषा कुलश्रेष्ठ के कहानी संग्रह ‘किरदार’ को
पढ़ते वक्त कोशिश यही रही कि अपने लिए कुछ नोट्स लिख
सकूँ, किताब को पढ़ने का अनुभव जैसा
कुछ। इस कोशिश में किताब कई-कई बार पढ़ी गई।
इन कहानियों में शिल्प और भाषा एक लय में बहती हैं, नए ताज़ा शब्द, अनछुई उपमाएँ, प्रकृति और विज्ञान
का समावेश, इस संग्रह को एक ऊंचे पायदान पर स्थापित करता है। किरदारों के बीच बहते संवाद, मन के भीतरी सतह को कुरेदती संवेदनाएँ, एक नई सोच का सृजन करते अनुभव, जैसे जीवन-राग से मुट्ठी भर रेत उठाकर लेखक ने एक कलाकृति बना दी हो।
मनीषा कुलश्रेष्ठ का लेखन हर कहानी के पीछे किरदारों की बेचैनी, बेनियाजी, लिहाज, झिझक, बेसब्री और बेअदबी
को इस संग्रह में विन्यस्त करता चलता है।
कुछ कहानियाँ कभी खत्म नहीं होतीं, उनके
किरदार अपने अनुभवों के साथ आपके साथ चलते हैं, कभी किसी दिन खिड़की
से यूं ही बाहर देखते हुए या किसी बस स्टॉप पर इंतज़ार करते हुए वो हू-ब-हू आपके
सामने आकर खड़े हो जाते हैं, आप अचरज में पड़ जाते हैं कि कैसे वो आपके व्यक्तित्व का हिस्सा हो गए, मनीषा कुलश्रेष्ठ की कृति ‘किरदार’, ऐसी ही कहानियों का
गुच्छा हैं।
इस किताब में मुझे सबसे संवेदनशील
कहानी लगी, ‘लापता पीली तितली’।
‘एक पीली तितली लापता हुई थी। वह उसके जीवन के उन दिनों की बात है जब
मौसम, वक्त और उम्र की गिनती तक नहीं पता होती थी। हर एक दिन एक उत्सुक
रोशनी लिए उगता था। सूरज बतियाता, चाँद कहानियाँ सुनाता। जब वह पाठशाला तक नहीं जाती थी तो हर दिन उसके
लिए एक पाठशाला होता था। हथेली पर रखी रेशम की गुड़िया और बाँह पर साथियों की
चिकोटी, जांघ पर चलते मकोडों की गुड़गुड़ी तक नई लगती थी’
इस कहानी में बिना बाल-शोषण शब्द का इस्तेमाल किए, बचपन में एक बच्ची
के साथ घटी अनहोनी को उकेरा गया है, ये इस संग्रह की सबसे जीवंत कथा है, चित्रात्मक भाषा के माध्यम से उस बच्ची का दर्द, उलझन, तड़प, कहना कितना मुश्किल
रहा होगा, लेखक ने जैसे कहानी को जिया हो, पाठक वो टीस भीतर तक महसूस करता है।
वहीं दूसरी कहानी ‘ऑर्किड’ में मणिपुर का जनजातीय जीवन और उसके इर्द-गिर्द उठता संघर्ष है। कहानी की नायिका पढ़ी-लिखी, समझदार लड़की है, लेकिन परिस्थियाँ
या कहें जीवन की वास्तविकता उसे इस कदर तोड़ देती हैं कि सारी समझ दूर खाई में जा गिरती है─ ये यात्रा ‘हमारा इंडिया’ को ‘आपके इंडिया’ तक ले आती है।
लेखक ने इस कहानी के लिए काफी रिसर्च की होगी, तथ्यों और नक्सली
जीवन की बारीकियों पर गहराई से काम किया गया है। मनीषा कुलश्रेष्ठ लिखती हैं ‘मृत्यु मृतक को कहाँ
एकाकी कर पाती है, एकाकी तो रह जाने वाले होते हैं’
तीसरी कहानी जो दिल के करीब रही वो है ‘एक ढोलो दूजी मरवण... तीजो कसूमल रंग’। दैहिक प्रेम और आत्मिक
प्रेम के बीच जैसे खांचा खीच दिया गया हो। इस कहानी को इसके भाषा-शिल्प के लिए जरूर पढ़ा जाना चाहिए। एक हिस्से में बादलों सा भीगता नेह, दूसरे हिस्से मौन
में पलता मोह, समाज की बन्दिशें और आँखों की पर्दादारी।
मनीषा कुलश्रेष्ठ लिखती हैं ‘इसकी आँख केवल आँख नहीं थी, आँख में एक सूना दिल बैठा था, उकड़ू’ साथ ही आँखों पर लिखी ये पंक्तियाँ ‘उस पर बहुत बड़ी और घनी बरौनियों वाली आँखें, गली के मुहाने पर
उगे दो पीपल। जो उठतीं तो उदास करती हीं, गिरतीं तो रुला ही जातीं, एक तटस्थ और अडिग दुख वहाँ जमा हुआ था।‘
ये कहानी भीलवाडा के पास बसे एक छोटे शहर गुलाबपुरा के बस स्टैंड पर
शुरू होती है।
कहानी के मुख्य किरदार कंडक्टर और एक विधवा लड़की
को पता भी नहीं कि बस में सीट पर बैठे दो अन्य किरदार उन्हें अपनी कहानी का हिस्सा
बना चुके हैं, सीट पर बैठे कपल का रिश्ता अलगाव की कगार पर है, ‘हम बेजा बातों के लच्छे लपेट रहे थे, जिनका कोई मतलब नहीं बचा था, मन सुन्न था, अलगाव की आगत आहत
से। बीतते पर संशय था। मेरे मन का एक हिस्सा उसे तमाम जद्दोजहद से थक हार कर पूरी
तरह भूलना चाहता था, और दूसरा हिस्सा भूल जाओ के खयाल मात्र से चीख पड़ता था, जैसे किसी के पके
घाव को छू भर लिया हो’
वहीं दूसरी तरफ एक अनकहा प्रेम, ऐसा महीन धागा जो शारीरिक प्रेम से परे दो रूहों के बीच था, एक दूसरे की फिक्र
के बीच पनपती
चाह ‘उसे उसके प्रति कोई सहानुभूति या कोई सरोकार लगता था। लेकिन मानो उसके
उस दिशा में देखने मात्र से कोई पवित्रता थी जिसके भंग हो जाने का खतरा हो। किसी
बहुमूल्य भाव के बहुत सस्ता हो जाने की शंका हो, या संयम ही तो था, उस कंडक्टर का जिसे मैं और शैलेश एक साथ महसूस
कर रहे थे लेकिन कुछ समझ नहीं पा रहे थे’
किरदार की हर कहानी पर लंबी बात की जा सकती है। कहानी ‘ठगिनी’ में लड़कियों के अस्तित्व पर प्रश्न उठाया गया है। आज भी गांवों और शहरी परिवेश में लड़की होने पर होंठों के आकार को पढ़ा जा सकता
है, इस कहानी में कैसे
एक लड़की अपने अतीत को खंगालती बियाबाँ में एक अंजान के पीछे पीछे चल देती है और अंत में जिस दरवाजे जाकर पहुँचती है वो वाकई हमारे पढे-लिखे जागरूक समाज को आईना दिखाने जैसा है।
इसी तरह एक और कहानी है, ‘समुद्री घोडा’, ये विज्ञान और मेडिकल साईन्स की कई परतें खोलता है, एक पिता के गर्भ
धारण करने की घटना। कहानी का नायक अपनी पत्नी से कहता है ‘रौद्रा, मुझे पता है, संसार भर से लड़ने से पहले, मेरा पहला युद्ध तुमसे होगा’
मनीषा कुलश्रेष्ठ ने इस किताब में कई विषयों को छुआ है वहीं एक कहानी
जनरेशन गैप पर भी लिखी गई है, कहानी में पिता अपनी बेटी के प्रेम और उसकी दुनिया को समझने में
नाकाम है, बेटी मासूम फुदकता हुआ ख्वाब
है जो कि पिता के सुरक्षा घेरे में क्षण क्षण डूब रहा है।
‘पापा अब वह ज़िंदा नहीं है। वह तटस्थ थी। उसके चेहरे पर जमा हुआ दुख
दिख रहा था। उसके होंठ काँप रहे थे, आंसू पी लिए थे उसने, लेकिन मैं उसका रुदन सुन सकता था। उसने उसकी समाधि अपने ही भीतर बना
कर, पीड़ाओं का, बिना नाम का
समाधिलेख लिखकर दरवाजे बंद कर दिए थे खुद के।‘
एक बेटी की नज़र से दुनिया को देखने पर महसूस हुआ कि ‘आधी दुनिया के
प्रकाशवान होने के बरक्स आधी दुनिया कर्कश, हिंसक और बीमारियों और वर्ग भेदों से भरी दुनिया भी थी। सारे आदर्शों की बात करते बड़े लोगों की अपनी
कमजोरियाँ और भ्रम थे। कुलीनता की रोशनी के अपने साए थे जो गिरते जमीन पर ही थे, विश्वासों की
एड़ियों में दरारें थी’
इस किताब की आखिरी और मजबूत शीर्षक कहानी है ‘किरदार’ – ‘वह कितनी सुंदर, संतुलित, कार्य कुशल महिला
थी, उसे एहसास था
जिम्मेदारियों का, वह मर नहीं सकती’
मुख्य किरदार ने आत्महत्या कर ली है, लाख ढूँढने पर भी कोई वजह नज़र नहीं आ रही, सतही रिश्ते में बंधा साथी, कैसे देख पाता जीती जागती लड़की के भीतर सुलगता दुख।
‘मेरे हिसाब से आपसी प्रेम और उसकी अभिव्यक्ति भी यथासंभव हम दोनों के
बीच रही ही। झगड़ा तो दूर हमारे बीच कभी बहस तक नहीं हुई, असहमतियाँ आपसी
समझदारी के निकष पर कस कर सहमतियों में तब्दील होती रहीं।
क्या मैं अपनी पत्नी के स्वभाव को कुरेद कर देखने में असफल रहा? क्या यह सतह सतह का
रिश्ता था?’
इस कहानी को पढ़कर लगता है ये भारतीय समाज के ना जाने कितने घरों की
कहानी है, एक लड़की शादी के बाद इतने रिश्तों में ढलती हैं कि उसका अस्तित्व
खोजे नहीं मिलता, घुटन हर पल झूठी हंसी में तब्दील हो जाती है, और सपने किसी बिसरे
युग में जिसे वो खोजने से भी डरती है, कहीं भूले से महसूस कर लिया अपना आप तो रेत के महल सी ढह ना जाए।
‘सपनों की सी दुनिया भी कभी कभी बुरी लगती है क्या? क्या मैं बेवजह
खुशी में असंतुष्टि खोजने के महान तर्क खोजती हूँ। पास में नदी होते हुए, तृष्णा की तरफ डग
भर रही हूँ? अतितृप्ति की मारी हूँ? तृष्णा के लिए तृषित?’
मनीषा कुलश्रेष्ठ का यह कहानी संग्रह ‘किरदार’ प्राथमिकता के साथ पढ़ा जाना चाहिए, एक श्रेष्ठ कृति।