April 18, 2021

मनीषा कुलश्रेष्ठ का कहानी संग्रह ‘किरदार’: मन की भीतरी सतह पर चलता जीवन

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एक अच्छी कहानी हमारे भीतर ठहरे कई विश्वासों को चुनौती देती है, सवाल खड़े करती है, सोच के स्तर पर इंसान को पूरी तरह बदल देने का जज़्बा रखती है।

 मनीषा कुलश्रेष्ठ के कहानी संग्रह किरदार को पढ़ते वक्त कोशिश यही रही कि अपने लिए कुछ नोट्स लिख सकूँ,  किताब को पढ़ने का अनुभव जैसा कुछ। इस कोशिश में किताब कई-कई बार पढ़ी गई। 

 

इन कहानियों में शिल्प और भाषा एक लय में बहती हैं, नए ताज़ा शब्द, अनछुई उपमाएँ, प्रकृति और विज्ञान का समावेश, इस संग्रह को एक ऊंचे पायदान पर स्थापित करता है।  किरदारों के बीच बहते संवाद, मन के भीतरी सतह को कुरेदती संवेदनाएँ, एक नई सोच का सृजन करते अनुभव, जैसे जीवन-राग से मुट्ठी भर रेत उठाकर लेखक ने एक कलाकृति बना दी हो।

 

मनीषा कुलश्रेष्ठ का लेखन हर कहानी के पीछे किरदारों की बेचैनी, बेनियाजी, लिहाज, झिझक, बेसब्री और बेअदबी को इस संग्रह में विन्यस्त करता चलता है।

 

कुछ कहानियाँ कभी खत्म नहीं होतीं, उनके किरदार अपने अनुभवों के साथ आपके साथ चलते हैं, कभी किसी दिन खिड़की से यूं ही बाहर देखते हुए या किसी बस स्टॉप पर इंतज़ार करते हुए वो हू-ब-हू आपके सामने आकर खड़े हो जाते हैं, आप अचरज में पड़ जाते हैं कि कैसे वो आपके व्यक्तित्व का हिस्सा हो गए, मनीषा कुलश्रेष्ठ की कृति किरदार’, ऐसी ही कहानियों का गुच्छा हैं

   

इस किताब में मुझे सबसे संवेदनशील कहानी लगी, लापता पीली तितली

 

एक पीली तितली लापता हुई थी। वह उसके जीवन के उन दिनों की बात है जब मौसम, वक्त और उम्र की गिनती तक नहीं पता होती थी। हर एक दिन एक उत्सुक रोशनी लिए उगता था। सूरज बतियाता, चाँद कहानियाँ सुनाता। जब वह पाठशाला तक नहीं जाती थी तो हर दिन उसके लिए एक पाठशाला होता था। हथेली पर रखी रेशम की गुड़िया और बाँह पर साथियों की चिकोटी, जांघ पर चलते मकोडों की गुड़गुड़ी तक नई लगती थी

 

इस कहानी में बिना बाल-शोषण शब्द का इस्तेमाल किए, बचपन में एक बच्ची के साथ घटी अनहोनी को उकेरा गया है, ये इस संग्रह की सबसे जीवंत कथा है, चित्रात्मक भाषा के माध्यम से उस बच्ची का दर्द, उलझन, तड़प, कहना कितना मुश्किल रहा होगा, लेखक ने जैसे कहानी को जिया हो, पाठक वो टीस भीतर तक महसूस करता है।

 

वहीं दूसरी कहानी ऑर्किड में मणिपुर का जनजातीय जीवन और उसके इर्द-गिर्द उठता संघर्ष है।  कहानी की नायिका पढ़ी-लिखी, समझदार लड़की है, लेकिन परिस्थियाँ या कहें जीवन की वास्तविकता उसे इस कदर तोड़ देती हैं कि सारी समझ दूर खाई में जा गिरती है ये यात्रा हमारा इंडिया को आपके इंडिया तक ले आती है।

 

लेखक ने इस कहानी के लिए काफी रिसर्च की होगी, तथ्यों और नक्सली जीवन की बारीकियों पर गहराई से काम किया गया है। मनीषा कुलश्रेष्ठ लिखती हैं मृत्यु मृतक को कहाँ एकाकी कर पाती है, एकाकी तो रह जाने वाले होते हैं

 

तीसरी कहानी जो दिल के करीब रही वो है एक ढोलो दूजी मरवण... तीजो कसूमल रंग। दैहिक प्रेम और आत्मिक प्रेम के बीच जैसे खांचा खीच दिया गया हो। इस कहानी को इसके  भाषा-शिल्प के लिए जरूर पढ़ा जाना चाहिएएक हिस्से में बादलों सा भीगता नेह, दूसरे हिस्से मौन में पलता मोह, समाज की बन्दिशें और आँखों की पर्दादारी।

 

मनीषा कुलश्रेष्ठ लिखती हैं इसकी आँख केवल आँख नहीं थी, आँख में एक सूना दिल बैठा था, उकड़ू साथ ही आँखों पर लिखी ये पंक्तियाँ उस पर बहुत बड़ी और घनी बरौनियों वाली आँखें, गली के मुहाने पर उगे दो पीपल। जो उठतीं तो उदास करती हीं, गिरतीं तो रुला ही जातीं, एक तटस्थ और अडिग दुख वहाँ जमा हुआ था।

 

 

ये कहानी भीलवाडा के पास बसे एक छोटे शहर गुलाबपुरा के बस स्टैंड पर शुरू होती हैकहानी के मुख्य किरदार कंडक्टर और एक विधवा लड़की को पता भी नहीं कि बस में सीट पर बैठे दो अन्य किरदार उन्हें अपनी कहानी का हिस्सा बना चुके हैं, सीट पर बैठे कपल का रिश्ता अलगाव की कगार पर है, हम बेजा बातों के लच्छे लपेट रहे थे, जिनका कोई मतलब नहीं बचा था, मन सुन्न था, अलगाव की आगत आहत से। बीतते पर संशय था। मेरे मन का एक हिस्सा उसे तमाम जद्दोजहद से थक हार कर पूरी तरह भूलना चाहता था, और दूसरा हिस्सा भूल जाओ के खयाल मात्र से चीख पड़ता था, जैसे किसी के पके घाव को छू भर लिया हो

 

वहीं दूसरी तरफ एक अनकहा प्रेम, ऐसा महीन धागा जो शारीरिक प्रेम से परे दो रूहों के बीच था, एक दूसरे की फिक्र के बीच पनपती चाह उसे उसके प्रति कोई सहानुभूति या कोई सरोकार लगता था। लेकिन मानो उसके उस दिशा में देखने मात्र से कोई पवित्रता थी जिसके भंग हो जाने का खतरा हो। किसी बहुमूल्य भाव के बहुत सस्ता हो जाने की शंका हो, या संयम ही तो था, उस कंडक्टर का जिसे मैं और शैलेश एक साथ महसूस कर रहे थे लेकिन कुछ समझ नहीं पा रहे थे

 

किरदार की हर कहानी पर लंबी बात की जा सकती है कहानी ठगिनी में लड़कियों के अस्तित्व पर प्रश्न उठाया गया है आज भी गांवों और शहरी परिवेश में लड़की होने पर होंठों के आकार को पढ़ा जा सकता है, इस कहानी में कैसे एक लड़की अपने अतीत को खंगालती बियाबाँ में एक अंजान के पीछे पीछे चल देती है और अंत में जिस दरवाजे जाकर पहुँचती है वो वाकई हमारे पढे-लिखे जागरूक समाज को आईना दिखाने जैसा है।   

इसी तरह एक और कहानी है, समुद्री घोडा’, ये विज्ञान और मेडिकल साईन्स की कई परतें खोलता है, एक पिता के गर्भ धारण करने की घटना कहानी का नायक अपनी पत्नी से कहता है रौद्रा, मुझे पता है, संसार भर से लड़ने से पहले, मेरा पहला युद्ध तुमसे होगा

 

मनीषा कुलश्रेष्ठ ने इस किताब में कई विषयों को छुआ है वहीं एक कहानी जनरेशन गैप पर भी लिखी गई है, कहानी में पिता अपनी बेटी के प्रेम और उसकी दुनिया को समझने में नाकाम है,  बेटी मासूम फुदकता हुआ ख्वाब है जो कि पिता के सुरक्षा घेरे में क्षण क्षण डूब रहा है।

 

पापा अब वह ज़िंदा नहीं है। वह तटस्थ थी। उसके चेहरे पर जमा हुआ दुख दिख रहा था। उसके होंठ काँप रहे थे, आंसू पी लिए थे उसने, लेकिन मैं उसका रुदन सुन सकता था। उसने उसकी समाधि अपने ही भीतर बना कर, पीड़ाओं का, बिना नाम का समाधिलेख लिखकर दरवाजे बंद कर दिए थे खुद के।

 

एक बेटी की नज़र से दुनिया को देखने पर महसूस हुआ कि आधी दुनिया के प्रकाशवान होने के बरक्स आधी दुनिया कर्कश, हिंसक और बीमारियों और वर्ग भेदों से भरी दुनिया भी थी। सारे आदर्शों की बात करते बड़े लोगों की अपनी कमजोरियाँ और भ्रम थे। कुलीनता की रोशनी के अपने साए थे जो गिरते जमीन पर ही थे, विश्वासों की एड़ियों में दरारें थी

 

इस किताब की आखिरी और मजबूत शीर्षक कहानी है किरदारवह कितनी सुंदर, संतुलित, कार्य कुशल महिला थी, उसे एहसास था जिम्मेदारियों का, वह मर नहीं सकती

 

मुख्य किरदार ने आत्महत्या कर ली है, लाख ढूँढने पर भी कोई वजह नज़र नहीं आ रही, सतही रिश्ते में बंधा साथी, कैसे देख पाता जीती जागती लड़की के भीतर सुलगता दुख। 

 

मेरे हिसाब से आपसी प्रेम और उसकी अभिव्यक्ति भी यथासंभव हम दोनों के बीच रही ही। झगड़ा तो दूर हमारे बीच कभी बहस तक नहीं हुई, असहमतियाँ आपसी समझदारी के निकष पर कस कर सहमतियों में तब्दील होती रहीं।

 

क्या मैं अपनी पत्नी के स्वभाव को कुरेद कर देखने में असफल रहा? क्या यह सतह सतह का रिश्ता था?’

 

इस कहानी को पढ़कर लगता है ये भारतीय समाज के ना जाने कितने घरों की कहानी है, एक लड़की शादी के बाद इतने रिश्तों में ढलती हैं कि उसका अस्तित्व खोजे नहीं मिलता, घुटन हर पल झूठी हंसी में तब्दील हो जाती है, और सपने किसी बिसरे युग में जिसे वो खोने से भी डरती है, कहीं भूले से महसूस कर लिया अपना आप तो रेत के महल सी ढह ना जाए।

 

सपनों की सी दुनिया भी कभी कभी बुरी लगती है क्या? क्या मैं बेवजह खुशी में असंतुष्टि खोजने के महान तर्क खोजती हूँ। पास में नदी होते हुए, तृष्णा की तरफ डग भर रही हूँ? अतितृप्ति की मारी हूँ? तृष्णा के लिए तृषित?’

 

मनीषा कुलश्रेष्ठ का यह कहानी संग्रह किरदार प्राथमिकता के साथ पढ़ा जाना चाहिए, एक श्रेष्ठ कृति।  

 

April 09, 2021

Murakami's Birthday Girl



करीब चार बजे पापा रूम में आए, बोले “क्या हुआ, पढ़ नहीं रही?” किताब सामने रखी थी, खुली हुई। मैंने किताब को बेमन से उठाया, बुकमार्क निकाला “पापा मुझे पचास का होना था, ये किताब मुश्किल है, समझ नहीं आ रही” वो बोले उठा के रख दे

यह हिन्दी साहित्य के एक बड़े लेखक की किताब है, काफी अलग, एक्सपेरिमेंटल राईटिंग। कुछ वक्त पहले ऐसे ही एक किताब और पढ़ी थी, वो भी इतनी vague एंडिंग के साथ ख़तम हुई थी, मुराकामी की बर्थ डे गर्ल 

आज फिर से किंडल में वही किताब खोली, छोटी-सी कहानी है। जिसे मुरकामी के 70th जन्मदिन पर रिप्रिंट किया गया था। कहानी का मुख्य पात्र बीस साल की लड़की है जो की टोक्यो के एक इटेलियन होटल में वेट्रेस का काम करती है, आज उसका बीसवां जन्मदिन है, कुछ प्लांस थे लेकिन हाल ही में ब्रेक-अप होने के बाद आज वो अकेली है, उसे ये भी नहीं पता कि कोई और उसे विश करेगा? लेकिन उसे विशेज मिलती हैं इस होटल के रहस्यमयी ऑनर से। जो कि इसी होटल के ऊपर अपने ऑफिस में कई बरसों से रह रहा है, जिसे किसी ने नहीं देखा, सिवाय इस होटल के मैनेजर के, क्यूंकी मैनेजर आज दस सालों में पहली बार बीमार पड़ा है तो आज खाना वही लड़की लेकर जाएगी। उसे खाना चुपचाप उनके कमरे के बाहर जाकर छोड़ देना था, लेकिन कुछ देर बाद वो लड़की ऑनर के साथ बैठी दिखती है, और उन्हीं की रिक्वेस्ट पर रेड वाईंन के साथ अपना जन्मदिन सेलीब्रेट कर रही होती है, जब होटल के मालिक उससे  एक विश मांगने को कहते हैं तो उसने क्या मांगा होगा? और दस साल बाद उसकी ज़िंदगी कैसी है, कहानी इसी के साथ खत्म होती है, कहीं पर भी नहीं बताया गया आखिर उस लड़की ने उस दिन मांगा क्या था बस यहीं पंक्तियाँ इस कहानी का सार हैं

“No matter what they wish for, no matter how far they go, people can never be anything but themselves. That’s all.”

ये कहानी आज जब फिर से पढ़ी तो जैसे बहते पानी सी साफ लगी, उस लड़की ने क्या मांगा होगा ये समझ आया। कुछ किताबें वक्त लेती हैं, इंतज़ार करती हैं आपके लौटकर वापस आने का।   

 

April 01, 2021

अनुकृति उपाध्याय का उपन्यास 'नीना आंटी': जिजीविषा से भरा किरदार

 


आप एक लेखक की पहली किताब पढ़ते हैं, ज़िंदगी को लेकर उनका नज़रिया आपको अचर में डालता है, भीतर एक इच्छा जन्म लेती है, उस लेखक का लिखा हुआ सारा कुछ एक प्रवाह में पढ़ जाने की, अनुकृति उपाध्याय मेरे लिए वहीं लेखक हैं। उपाध्याय का लेखन नीम वाले आँगन में गमकती दोपहरी सा है, जो सोच के नित नए द्वार खोलता है। मैं जाने कितनी बार उनके लिखे के बीच लौट-लौट जाती हूँ, उनकी किताबें उतनी ही सहृदयता से मुझे अपनाती हैं, मन के भटकाव को जैसे कोई नर्म हथेलियों में थाम भर ले।

इन दिनों राजपल एंड संस से प्रकाशित अनुकृति उपाध्याय का नया उपन्यास, नीना आंटी पढ़ा। नीना जैसा किरदार गढ़ना ही, पुरुषसत्ता के ढांचे को ध्वस्त कर, स्त्री के अस्तित्व के लिए नई संभावनाएं तलाशना है। ये उपन्यास एक लड़की के हिस्से का सच कहता है, सीधा-सपाट सच।

उपन्यास के कथा केंद्र में है नीना, जो किसी दूसरे के गीत में बिंधा महज़ कोरस नहीं बल्कि अपने में सम्पूर्ण सिंफनी है, हर औरत का इतिहास नहीं होता, सिर्फ समझौतों से भरी सकरी गलियाँ होती हैं। नीना का इतिहास था, विद्रोहों और उद्धत्ता, प्रेम और आवेगों से रंगीन इतिहास।

उसने कभी बनी-बनाई लीक पर चलना सीखा ही नहीं, वो मानती है कि मन का करने से पहले मन को जान लेना जरूरी है। बाहरी दुनिया के लिए वो दिखावटी मुखौटा नहीं पहनती, जो भी अनुभव हैं गहरे और बेधड़क जिये हुए, चाहे वो सुंदरता हो या कोई चोट, यह हर स्पर्श को सीधे आत्मा पर महसूस करने जैसा है।

नीना के भीतर मुस्कुराहटों की गुप्त गंगा है, खुले दिल वाली मुस्कुराहट, मन मसोसकर जीना उसने सीखा ही नहीं, अपनी परेशानियों से खुद निपट लेती है, दुख पहुंचता है तो भी ज़ाहिर नहीं करती, कर भी देती तो क्या कोई उसका पक्ष समझ पाता? शिकायत नहीं करती लेकिन बेबाक है, ऐसी उन्मुक्त पाखी रूह को मठाधीशों का रौब भला कहाँ बांध पाएगा? उसे किसी ऐसे शख्स की ज़रूरत नहीं जो उसके लिए दुनिया से लड़े, “सबके बीच अंतराल खोज एकाकी, दल में अलग थलग चुगती गौरैया, एकल, व्यस्त, अपने में पर्याप्त



एक विशाल परिवार का हिस्सा थी नीना, लेकिन किसी ने उसे मौसी या बुआ नहीं नीना आंटी कहकर ही पुकारा, कोई और संबोधन उसके व्यक्तित्व पर जंचता भी कैसे? परिवार के युवा दल के बीच खासी लोकप्रिय रही, सभी उसके पास कभी ना कभी आए, जीवन की उलझन, थका मन, दुखता अहम, कुढ़न, कुंठा लेकर। नीना दार्शनिक स्तर पर जिंदगी को देखती हैं, “जब भी कुछ सुलझाना हो तो धागों को खींचना नहीं चाहिए, हल्के हाथों अलगाना चाहिए।”

अनुकृति उपाध्याय ने नीना आंटी उपन्यास, एक युवा किरदार, सुदीपा के नजरिए से लिखा है, सुदीपा ही इस कथा की नरेटर है, जो इस वक्त बेचैनियों की पोटली बांध नीना आंटी के पास पहाड़ चली आई है। अभी तक जिन्हें अफवाहों में सुना, यहाँ पहाड़ पर पहुँचकर वो उनकी जिंदगी को करीब से महसूसती है, उन्हें बागवानी करते, फूलों से इत्र तैयार करते देखती है। सोचती है कि इस हवेलीनुमा मकान में अकेले रहने को लेकर नीना आंटी का पूरा परिवार क्यूँ उनके खिलाफ है?

किसी एक के भूल जाने या नकारने से तुम्हारी याद झूठी नहीं पड़ जाती, अक्सर हमारी स्मृतियाँ एक दूसरे से मेल नहीं खातीं, जो जैसा तुम्हें याद रहता है, वो वैसा ही दूसरे को नहीं

सुदीपा खंगाल रही है नीना आंटी का स्याह अतीत, नीना ने प्रेम किया कई दफ़े किया, फिर शादी क्यूँ नहीं की? जैसा सब कहते आए हैं क्या सचमुच नीना आंटी एक बुरे चरित्र की औरत थीं? किस्सों में किस्से खुलते हैं, स्मृतियाँ आकार लेती हैं, सोच के स्तर पर कई सवाल खड़े होते हैं।  

इस तरह नीना के बहाने, तीन पीढ़ी की औरतों का सच सामने आता है, नीना की माँ जिनमें इतनी हिम्मत नहीं कि अपनी सोच और फैसले की डोर खुद थाम सके, अपनी बेटी के सही को सही कह सके। अपने आखिरी समय में माँ और नीना के बीच घटे वो कुछ पल, वही सच्चे थे बाकी सारी जिंदगी झूठ? किताब के आखिरी कुछ पृष्ठ आपको सोचने पर मजबूर करते हैं।


समाज की लादी मान्यताओं को ढोती अकेली माँ ही नहीं, नीना की बहनें भी थी। अनुकृति उपाध्याय ने कैसे इन पात्रों के बीच नीना का जिजीविषा से भरा व्यक्तित्व रचा है। वो कहानी का एक सिरा वर्तमान से उठाती हैं और अतीत से जोड़ देती हैं, ये उतार-चढ़ाव सहजता से चलता है। उपाध्याय के उपन्यासों में प्रकृति का विवरण अवश्य होता है, जो उनके पात्रों के चरित्र को निखारता है।

एक बार जाने हुए से फिर अंजान नहीं हुआ जा सकता, जाना हुआ ऐसा जिन्न है जो फिर से बोतल में बंद नहीं किया जा सकता

जिसने उपाध्याय को पहले पढ़ा है वो इनके भाषा शिल्प का प्रसशंक रहा होगा, रंगों में डूबे, सांस लेते बिम्ब, जीवंतता से भरी छवियां, यह प्रकृति को शब्दों के कैनवास पर शिद्दत से जीने जैसा है। शब्द-शिल्प और किस्सागोई में गहरी पकड़ एक अच्छे लेखक होने की पहली शर्त हैं।

नीना आंटी स्त्री चेतना को आधार बनाकर लिखा गया है, जो अपने मुख्य किरदार के बहुआयामी अनुभवों और संवेदनाओं के जरिए सीधे पाठक से संवाद करता है। इसे लघु उपन्यास क्यूँ कहा गया, जबकि ये अपने आप में सम्पूर्ण है, इसे 112 पृष्ठों में ही सिमट जाना था, सिमट गया। उम्मीद कभी लघु-वृहद नहीं होती, अनुकृति उपाध्याय की किताब नीना आंटी सूखते जंगल के बीच वही हरियाती उम्मीद है। हर पाठक वर्ग के लिए एक जरूरी किताब।    



लेखक के बारे में 

अनेक वर्षों तक हाँगकाँग में बैंकिंग और निवेश के सैक्टर में कार्यरत रहने के बाद अनुकृति उपाध्याय ने अपने कहानी संग्रह ‘जापानीसराय’ के जरिए साहित्य-जगत में प्रवेश किया था। द्विभाषी लेखक हैं, वह लिखती हैं इस आशा में कि इस रचनात्मक जोड़ने-तोड़ने में वह कुछ अनाम ढूँढा जा सके जो शायद है भी या नहीं भी। 'नीना आंटी' हिन्दी में उनका पहला उपन्यास है'।  

लिंक: नीना आंटी ऑनलाइन खरीदी जा सकती है। 

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