एक दिन पहले तक जिनकी हंसने की आवाज सुनी, एक दिन बाद सब कुछ खत्म। कितना अजीब है ये सब, चन्द मिनटों का खेल जैसे, एक महीन सांस का धागा, बनने की प्रकिया में ही टूट गया, या बाती की वो मद्धम लौ जिसका बुझना अचानक होता
है, पलक झपकता जीवन, होने और
न होने के बीच डोलता हुआ,
पेंडुलम। हजारों जिम्मेदारियों का बोझ लादे कंधे
अब दूसरे के कांधे की सैर पर हैं, मुस्कुराते ठंडे
होंठ सारी चिंताओं से मुक्त, कितना बड़ा पागलपन है
जिए जाना, सिर्फ जीते चले जाना। थोड़ा ठहरना है, देखना है पीछे, कितना
अनजिया छूट गया, दर्द है टीस भी, गहरी नींद
सब मिटा देगी, चंद मिनटो का खेल बस।
-- अंकिता चौहान