July 29, 2016

तुम्हारी नज़्म

गुलज़ार साब को जितना पढ़ते हैं
उनकी नज्में हमें अंदर से थोड़ा और खाली कर जाती है
खालीपन जिसमें कुछ नही बचता सिर्फ गुलज़ार के
गुलज़ार जो अब एक एहसास हो चुके हैं

उम्र, लफ्ज़, जिस्म से परे.. 
Dedicated to Gulzar Saab
तुम्हारी नज्म पढ़ी
आधी से कुछ ज्यादा
पूरी से कुछ कम

मेरी आँखों के काले मोती उलझ गए
डायरी में बिखरे तुम्हारे लफ़्ज़ों से

पलट कर  वो लम्हा मैंने
मूँद लिया पलकों  को
किताब को सीने से लगाया
तो जाकर अटक गया वो
साँसों के बीच कहीं 

वो लम्हा जिसे
आजाद होना है
या फिर कैद हो जाना है तुझमें
वो नज़्म जिसे
पूरा होना है.. 
या फिर छूट जाना है मुझमें

सुनो ना
सुनो तो
तुम्हे किसी मोड़ पर
नज़्म का वो कतरा मिले
तो छोड़ आना उसे वहीँ
मेरे लिए तुम
तुम्हारा
कुछ वक्त ले आना 

ना जाने कब से
अपने वजूद का दूसरा सिरा तलाशती
तुम्हारी  नज्म अधूरी है.. 

- अंकिता चौहान 


यह मैं भी एक नज्म होत्ती(2014) का शायद जुड़्वा हिस्सा होगा.. जो अगस्त गुलज़ार है(2015) से होता हुआ 2016 तक मेरे साथ चला आया..18 अगस्त जन्मदिन विशेष!