अमृता प्रीतम जी ने अपनी इस किताब “मन मिर्ज़ा तन
साहिबा” को पूर्णतः रजनीश जी को समर्पित किया है।
उनके लफ्ज़ कभी ख्यालों के पैरों में पायल से बजते
हैं तो कभी ज़िंदगी से थके हुए यात्री को हौंसला देते हैं। यह किताब अंतरचेतना को
संगति प्रदान करती प्रतीत होती है।
अमृता जी कहती हैं “ मिर्ज़ा एक मन है जो साहिबा
के तन में बसता है और जो यह अनुभव कर सका वही मुहब्बत के आलम को समझ सकता है।
साहिबा व मिर्ज़ा के बदन उस पाक मस्ज़िद से हो गए हैं जहां पाँच नमाज़े बस्ता लेकर
मोहब्बत की तालीम पाने आती हैं।“
वजूद की गहराई तक उतरती इस किताब में अमृता जी ने
अपनी कुछ एक नज़्में भी पिरोयी हैं-
1.
अनुभव एक है असीम का - अनंत का,
पर एक रास्ता तर्क का है
जहां वह कदम कदम साथ चलता है,
और एक रास्ता वह है जहां तर्क एक ओर खड़ा देखता रह
जाता है॥
2.
जाने कितनी खामोशियाँ हैं
जो हमसे आवाज मांगती हैं
और जाने कितने गुमनाम चेहरे हैं
जो हमसे पहचान मांगते हैं॥
3.
अमृता जी ने हाफिज़ शीराजी के कुछ ख्यालों को भी
इस किताब में जगह दी है,
हाफिज़ जी कहते हैं
”साकी! जाम को गदरिया में ला और मुझे दे,
इब्तदा-ए-इश्क़ तो आसान नज़र आया
लेकिन इंतहा बहुत मुश्किल हुई”
दुनिया की शेर-ओ-शायरी में कुछ ऐसे आशार हैं जो
नज़र भर देखने के लिए नहीं होते, उनके पास एक घड़ी ठहर कर गुज़र जाना होता है। हाफिज़
का यह शेर एक लम्बी यात्रा को लिए हुए है, जिसमें एक छोर पर खड़े हो जाएं तो इश्क़
आसान नज़र आता है और दूसरे छोर तक पहुचते पहुचते सब कुछ एक मुश्किल में ढ़ल जाता है।
इसी तरह के रूहानी हर्फों से दिल तक का फासला तय
करती है अमृता जी की यह किताब “मन मिर्ज़ा तन साहिबा”।