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आहिस्ता-आहिस्ता,
अब-जब वक़्त बिछड़ने लगा है हथेली से
कुछ आहट महसूस होती है इर्द-गिर्द
डबडबाती पलकें उठाकर देखती हूँ तो
खुद की सांसे ही तैरती मिलती हैं
कुछ बदहवास तो कुछ लावारिस
अनजाने में खामोशी के कुछ
बीज बो दिए थे हमनें,
दिल तक पहुँचती हर राह पर
ना जाने कब,
शिकवों की बर्फ-सी जम गई
इक युग बीत चला,
दो रूहें अर्ज़ी लगाए हुए हैं बरसों से
मानों आखें भी आज़ाद होना चाहती हों
उक्ता गई हों एक बेहिस नज़रिये से
आज सामने पाकर तुम्हें
झिझक की कैद से
चुरा लिया मैंने
एक लम्हा
अधरों पर बिखर गया
गीली हंसी में डूबा इक सवाल,
“इतने अरसे बाद मिले हैं हम
कुछ इश्क़ तो जी रहा होगा तुझमें भी,
कुछ मुहब्बत तो तुझमें अब भी धड़कती होगी..!”
- अंकिता चौहान