July 02, 2013

धुल सा गया सब !!

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आज फिर यूहीं
कागज़ के कुछ बेतरतीब
पुर्जे झाड़ रही थी..
कुछ पुराने खत मिले
भरे-भरे
फिर भी कितने खाली-खाली
एहसासों की स्याही से लिखे
वो चहकते लफ्ज़
वक़्त चलते धुंधला से गए
एक डायरी
जिसका फटा हुआ ज़िल्द
मानो मायने समझा रहा हो
उस रिश्ते के
जो शायद था ही नहीं...

उसमें दबा एक गुड़्हल का पत्ता
ना चाहते हुए भी भीगी हुइ मुस्कान छोड़ गया
फूल नहीं कुछ पत्ते दिये थे तुमने
जो सृष्टि निर्माण की मुख्य भूमिका में होते हैं
साथ निभाते हैं .... अंत तक

एक घड़ी थी रुकी हुइ सी
मानो मेरी हर धड़कन का हिसाब रख रही हो
एक कलम जिसकी स्याही सूख चुकी है
मेरी पलकों पर जमी बूंदों की तरह..

निर्निमेष देखती रही सब
उस कब्र सी खामोशी में,
यादों की धाराओं ने
आज फिर झकझोर दिया मुझे...
अब ज़िन्दा कहाँ था वो रिश्ता
और जीवित कहां थी मैं...
भर लिफाफे में
उस दर्द, उस चुभन को
बस् एक आवाज़
“ सुनो भैया पुराने अखबारों के साथ
ये भी ले जाइये ..
सब धुल सा गया .. अब रद्दी है ..!! “

- अंकिता चौहान