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अक्सर ढूंढते रहते हैं हम अपना प्रतिबिम्ब
कुछ समानताऐं छांटते रहते हैं
विभिन्न चलती हुई आकृतियों में
कहीं कुछ मिल जाए ...अपना सा ... मेरे जैसा
ह्रदय से स्वीकारा हुआ.... सम्पूर्ण ।
पर आँखों को जॅचती है कभी तस्वीर एक ही रंगों वाली...?
कोरी सी लगती है ..
और एक अरसा बीतने पर धुंधला सा जाता है अक्स उसका
मस्तिष्क कल्पनाऐं करने लगता है
प्रकृति से चुराए हुए रंगों को ,
अनछुए ही तस्वीर में भरने लगता है,
सम्पूर्णता वो तब भी चाहता है...
बस खिलती हुई .. महकती हुई ..
प्रकृति का अंश लिये हुए ,
जीवन से परिपूर्ण ।
इन नाजुक रिश्तों में यही बात बिसार बैठते हैं हम ..
भूल जाते हैं , उसकी नादानियाँ .. अलग सा होना ..
मेरे व्यक्तित्व से जुदा सा होना ही ..
पूरा करता है मुझे .. !!