किताब: रूह
लेखक: मानव कौल
प्रकाशक: हिंदी युग्म
विधा: यात्रा-संस्मरण
पेपरबैक: 175 पृष्ठ
मानव कौल की यह किताब 'रूह', कश्मीर पर लिखा गया यात्रा-संस्मरण है। यात्रा बाहरी से कहीं अधिक भीतरी। मन में चलती उठा-पठक और नॉस्टालजिया। समकालीन विषयों से इतर, यहाँ मानव की नज़र से कश्मीर दिखता है। कश्मीर जो उनका घर था, वह जिस मनोभाव से घर की दीवारों-दरवाज़ों को अपने लिखे में जीवित करते हैं, सराहनीय है।दृश्य, जब वह बचपन में मौजूद लोगों को अपने सामने पाते हैं, सुंदर है। मानव खुद कहते हैं कि ये कश्मीर के ज़्वलंतशील मुद्दों को केंद्र में रखकर लिखी गई किताब नहीं है। यह डॉक्यूमेंटेशन है, एक ऐसे बच्चे का जिसका जीवन उस एक क्रूर हादसे ने बदल कर रख दिया।
किताब में एक अन्य पात्र, रूहानी जो पूरी यात्रा में उनके साथ है, ‘बहुत दूर कितनी दूर होता है’ में भी आप इसी तरह के पात्र से रू-ब-रू हुए होंगे। क्या ये पात्र काल्पनिक हैं? नाम भले अलग हों, लेकिन वे प्रतिरूप होने का आभास देते हैं, यह दोहराव पाठक को ज़रा विलगाता है।
अगर आप मानव कौल को पहली दफ़ा पढ़ रहे हैं तो यह किताब जादू-सी लगेगी।
ईमानदार राय रखूँ तो मानव ने जितना खुद को ‘बहुत दूर कितना दूर होता है’ में रचा है, ‘रूह’ उस उँचाई को छूने से ज़रा चूक गई। सनद रहे, इनकी किताबों के ज़रिए अनगिन हिंदी पाठक तैयार हो रहे हैं। और यह एक उपलब्धि है। किताब का एक अंश साझा कर रही हूँ -
सन् 1988 के बाद से जो भी घटा था इस वादी में, और वादी से निकल गए सारे परिवारों ने जो सहा था, उन सब लोगों की कहानियों को अगर हम सुनना शुरू करेंगे तो हमें अपनी इंसानियत पर शर्म आने लगेगी। जिस तरह बाहर रह रहे कश्मीरी पंडितों को छूते ही वे फूट पड़ते हैं, ठीक वैसे ही यहाँ रह रहे कश्मीरी मुस्लिम भी पुरानी घटनाओं पर फट पड़ते हैं। लेकिन इन सबमें पंडितों का कश्मीरी मुस्लिम और कश्मीरी मुस्लिम का पंडितों के प्रति स्नेह भाव ख़त्म नहीं हुआ है। यहाँ घूमते हुए जब भी किसी को पता चलता है कि मैं पंडित हूँ, ठीक उसी वक़्त से हमारी बातचीत में एक अपनापन आ चुका होता है। 'इसे सब पता है' वाला एक भाव दोनों के संवादों में रहता है। अब जो पंडितों की नई पीढ़ी है, उसे घटनाओं की सुनी हुई जानकारी है, जिन्होंने उन घटनाओं को जिया था वे या तो बहुत बूढ़े हो चुके हैं या वे अब नहीं रहे। कश्मीरी मुस्लिम बच्चे जो उस वक़्त बड़े हो रहे थे, या जो पंडितों के बच्चे यहाँ से नहीं गए थे, उनके बचपन के जिए हुए की छाप उनके चेहरे... पर साफ़ दिखती है। 'तुम लोग तो चले गए थे, मैं इस वाक्य के पीछे का मर्म समझ सकता हूँ।