April 28, 2019

किताब समीक्षा: रौशनी का दरवाज़ा - अनिल जीनगर




“मैंने उस दरार को बनते हुए भी देखा और मिटते हुए भी देखा। कुछ तो था, जो हिन्दू मुसलमान होने के बावजूद भी हम लोगों को इंसान बने रहने दे रहा था”

आजादी के इतने सालों बाद भी विभाजन का दर्द कहती कहानियाँ दिल में टीस पैदा करती हैं। कोई उस वक्त का आँखो देखा हाल सुनाए तो यकीन नहीं होता कि रिश्तों को इतने गहरे जख्म मिले थे।

विभाजन का दर्द अकेले नहीं आया, अपने साथ अपनी जमीन से उखाड़ दिए जाने का दर्द, विस्थापन का दर्द भी साथ लाया था, कई सवाल कई शिकायतें, कई मजबूरियाँ, और मन के भीतर रिसता दर्द।

अनिल जीनगर का लिखा पहला उपन्यास “रौशनी का दरवाजा” इसी बैचेनी को शब्दों में समेटने की कोशिश है। इस किताब की शुऊवात भी एक किताब से होती हैं जिसे अपनी मंजिल तक पहुँचना है।

लेखक कहते हैं कि “हर कहानी में एक चाबी होती है, जो दूसरी कहानी पे लगा हुआ ताला खोल देती है। ये कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जो हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बँटवारे से शुरू हुई।  फिर इश्क़ की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई, बहुत सारी ज़िंदगियों में रौशनी करती चली। रमज़ान से शुरू हुई ये कहानी रूमी पर ख़त्म हुई।

अहमद, रमजान, किफायत, गुलनार, कविता, जितने चेहरे उतनी कहानियाँ, परत दर परत खुलते किरदार, किरदारों के अतीत से जुड़ती एक और कहानी।   

मैं एक बार फिर से सब कुछ जी लेना चाहता था, जिंदगी ऐसे मौके बार बार नहीं देती। अगर दे तो झट से झपट लेने चाहिए। ये कहानी मुझ से शुरू होगी, लेकिन अंत तक मैं आपको कहीं नहीं मिलूँगा, मैं एक सूत्रधार की तरह आपके साथ रहूँगा। मैं पेशे से इंजीनियर हूँ और अपनी नौकरी में मैंने भी मशीनों की तरह बर्ताव करना शुरू कर दिया है, मेरे अहसास बिल्कुल खत्म हो गए थे। मेरी पत्नी पूर्विका जिसने मुझे हद से ज्यादा मोहब्बत की थी, उसने भी मुझसे अलग होने का फैसला ले लिया था।

उपन्यास में राजनितिक पहलुओं के इर्द-गिर्द किरदार रचे गए हैं, 6 दिस्मबर 1992, में बाबरी मस्जिद के गिरने से उखड़े दंगे का भी जिक्र है और मुल्क के बंटने पर दो भाईयों की जिंदगी में होने वाली उथलपुथल भी।

"मैं पाकिस्तान जाना चाहता हूँ” रमजान की आवाज से वो खामोशी टूटी, अहमद उसकी ओर देख रहा था बिना कुछ कहे। जैसे कहने को अब कुछ बचा ही नहीं था उन्होंने उन लाशों के साथ शायद हर लफ्ज़ को भी दफना दिया था।“

दरअसल हाजी साहब (अहमद) और रमजान, दो भाई मुझे रूपक लगे, एक मुल्क से टूटे दो हिस्से, जिन्होंने ना जाने कितनों के अंदर चलती घुमड़न को दर्ज किया।  

लेखक लिखते हैं “जो एक पल में शिकारी था वही दूसरे पल में शिकार हो रहा था। जमीन लहू पी रही थी, आसमान रो रहा था, मौत नाच रही थी”

इंतजार शब्द के उपर लिखी गयी लेखक की पक्तियाँ आपको एक मोहपाश में बाँध लेती हैं, शायद किताब के शुरूवाती पन्नों का सबसे खूबसूरत हिस्सा।

लेखनी हर तरह से खूबसूरत है चाहे वो एक बच्चे की आँखो से पंतग को देखने का दृश्य हो या कविता के वो सूफीयाना खत। ये खत एक बारगी आपको अमृता प्रीतम की कलम याद दिलाते हैं।

“हम अकेला रहना चाहते है, तो भी हम अकेला नहीं रह सकते, कोई छूटता है तो कोई और जुड़ जाता है। रमजान ने भी अकेला होने के लिए मिट्टी को अलविदा कहा था , लेकिन वो अकेला कहाँ रहा अब तो गुलनार उसके साथ थी।“

धर्म को लेकर होते दंगों की खौफनाफ तस्वीर, आपसी रिश्तों के बीच आई दूरी, कुछ राजनेताओं की जिद पर देश में फैला सामाजिक तनाव, शरणार्थी होने के मार्मिक क्षण, लेखक ने हर पात्र को जैसे जिया हो।  

किताब एक बार जरूरी पढ़ी जानी चाहिए। कथानक पर शायद और काम हो सकता था। अनिल जीनगर जो गीतकार है, किताब के रूप में यह उनका पहला प्रयास है, अशेष शुभकामनाएँ।


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P.S. Received kindle copy by author in exchange of an honest review.