बस अपने तयशुदा वक्त पर चल दी। खिड़की से आती ठंडी
हवा की सरसराहट मुझे उस घर की याद दिला रही थी जो पाँच साल पीछे मेरी यादों में
ठहरा था। नानी-माँ का घर। मेरा मन, खुले आँगन में बिखरी यादें बीनने लगा।
आँवले के मुरब्बों की गंध मेरी नाक में भर गयी।
आँखे मिचमिचा उठी, जैसे रात को छत पर, नानी की साड़ी के आँचल से छनता चाँद देख लिया
हो, कई रंगो से घिरा चाँद।
उन दिनों भोलू सारी रात गली में भौंकता था।
झिंगुर की आवाजें सायरन-सी सुनाई पड़ती। तब नानी मुझे अपने सीने से चिपकाए नए-नए भगवान
की कहानी सुनाती। जहाँ सुबह की नींद अलार्म-क्लॉक से नहीं मोर की बोली से खुलती, जहाँ
की दोपहरें चिलचिलाती धूप नहीं, पौधों की गहरी-हरी-छाँव समेटे होतीं।
जयपुर के पास बसा वो छोटा-सा कस्बा मेरी नानी का
घर था। जहाँ कभी सबसे जरूरी इंसान था...मैं।