May 08, 2016

गुलजार साब की एक नज़्म - मां


तुझे पहचानूंगा कैसे?
तुझे देखा ही नहीं

ढूंढ़ा करता हूं तुम्हें
अपने चेहरे में कहीं

लोग कहते हैं
मेरी आँखे मेरी माँ सी है

यूं तो लबरेज़ हैं पानी से
मगर प्यासी हैं

कान में छेद है
पैदायशी आया होगा
तूने मन्नत के लिए
कान छिदाया होगा

सामने दांंतोंं का वक़्फ़ा है
तेरे भी होगा
एक चक्कर
तेरे पांव के तले भी होगा

जाने किस जल्दी में थी
जन्म दिया, दौड़ गई
क्या ख़ुदा देख लिया था
कि मुझे छोड़ गई

मेल के देखता हूँ
मिल ही जाएं तुझ-सी कहीं
तेरे बिन ओपरी लगती है
मुझे सारी जमीं

तूझे पहचानूंगा कैसे?
तूझे देखा ही नहीं।
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   - गुलजार