March 24, 2016

किताब समीक्षा: मोहभंग के बाद – शिशिर सोमवंशी

टाईटल: मोहभंग के बाद
लेखक: शिशिर सोमवंशी
पब्लिकेशन: किताब महल
शैली: कविता संग्रह
पृष्ठ: 106
स्त्रोत: लेखक
ISBN: 9788122507812
रेटिंग: 5/5

संवेदनहीनता की ओर निरंतर अग्रसर हमारी सामाज़िक व्यवस्था में कविताएँ ऐसा माध्यम है जहाँ हम कुछ देर के लिए ही सही खुद से, अपने आप से मिल पाते हैं। कविताएँ लिखना ज़ितना आसान हैं...अच्छी कविताएँ लिखना उतना ही मुश्किल। अपने अंदर छुपे हुए इंसान से मिलवाती हैं ये कविताएँ, अपनी वास्तविकता को अपनाने का, उससे पुरजोर प्यार करने का अवसर देती हैं..साहस देती हैं।

गत सप्ताह शिशिर सोमवंशी जी की नवरचना मोहभंग के बाद पढ़ने का अवसर मिला। 55 कविताओं का यह संग्रह उनकी पहली किताब है लेकिन उनके लिखने की शैली, अहसासों को सतही शब्दों से परे जाकर एक क्षण में बांधने की उनकी कला, वाकई लुभाती है। एक-एक पृष्ठ को रुक रुक कर पलटा, पढ़ा, महसूस किया। एक कवि की ज़िंदगी में कुछ अपने जिए लम्हें मिल जाए तो कविता सार्थक लगती है...वही लम्हें जिन्हें हम लफ्ज़ देना भूल गए थे।

शिशिर जी की कविताएँ अपने चन्द अहसास लिए दिल में चहलकदमी करती हैं। प्रेम, विरह, मिलाप, छोटी-छोटी मुलाकातों में महकते कहे-अनकहे भाव सब कुछ इतना सुंदर था..कि पहली बार किताब को पढ़ने के दौरान कितनी ही बार तय किया कि इस कविता को दोबारा पढ़ना है..आज ही। हिन्दी भाषी जगत के लिए यह संग्रह अनमोल निधि है।

यहाँ इसी कविता-संग्रह से कुछ अंश साझा कर रही हूँ...

पुन: उदास हूँ
किंतु अपराज़ित
विकट जीवट है
ढीठ है
मेरा प्रेम
उसकी जिजीविषा।
         —   समय मुझे देना नहीं

सोचता हूँ अब तक
दिन जल्दी ढले
लौट आउँ मैं
और तुम वहीं
बाट जोहो मेरी
मेरा घर बनकर
          —    सुबह के सपने

कहने से सुनना
और सुनने से
समझ जाने में
सच है
सार्थकता है
रिश्तों में
अधूरेपन में भी
उनकी संपूर्णता है
  तुम्हारे साथ

कुछ एंकात खोज़  
कहीं पर
अपने उपर
 मरना है
कितने ही धुंधले
चेहरों से
जबरन परिचय
करना है
         —     यादों की भरपाई

कवि परिचय
पेशे से वानिकी वैज्ञानिक शिशिर सोमवंशी का बचपन कुमाउँ की रमणीक वादियों में बीता। प्रकृति के सानिध्य एवं यथार्थ की अनुभूतियों से उपजी कविताएँ यदा-कदा मुखर होती रही किंतु जीवन की व्यस्तता में सक्रिय लेखन संभव ना हो पाया। विगत कई वर्षो से शिशिर की कविताएँ नियमिल ब्लोग पर लेखन और कुछ कविताएँ पत्रिकाओं में निंरतर प्रकाशित होती रहती हैं। वर्तमान में हिन्दी-शोध-पत्रिका शोध तरू का संपादन कर रहे हैं।


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भाग्य-रेखा : कहानी

सेब..?
ग़लत
मीठी...रेबड़ी?
आज बर्फी है.. वो भी दो-दो
तो क्या आज भी मंगलवार है ?
नहीं आज मंगलवार का छोटा भाई है....बुधवार
भैया, मुझे शनिवार नहीं पंसद..वो सब तेल क्यूँ चढ़ाते हैं? भगवान क्या तेल खाते है?
भगवान तो बर्फी भी नहीं खाते"
धीरे बोलो उन्हें पता लगा तो कल से चढ़ाना बंद कर देंगे
नहीं करेगे... पंडित जी ने आज खूब हाथ टटोले हैं
मुझसे तो वो बोले तेरे हाथ में कोई भाग-रेखा नहीं है
ये क्या खड़ा तेरे सामने इत्ता बड़ा...देख मुझे उपर से नीचे तक भाग-ही-भाग है...चल तुझे गन्ने का रस पिलाऊँ...आजा..!  

- अंकिता चौहान  ( आज सिरहाने का बेहद शुक्रिया..! )  

March 19, 2016

CHECKMATE - A Short Story

I know his game is almost over. 
All his players have been resting 
In the transparent box, 
Which was placed under the shadow 
Of his arms—but I have to pretend, 

I have to make a wrong move mistakenly. 
I have to make an expression 
Of “Ouch” with biting nails. 
I have to make him believe that 
He is one who knew how to play chess.

It is better to losing the game over and over
Than washing glasses in his dad’s tea shop.
This checkmate wins me..
Childhood. 

- Ankita Chauhan 

March 05, 2016

Strong Roots - A Short Story


“The wind cannot defeat a tree with strong roots” He paused running frames and his eyes glued to the screen. He was watching ‘The Revenant’ that day.
For entertainment, right?  
As to genre it was adventure. Then what happened, why did his eyes become gloomy, why did reminiscences of past started playing in his head? How did Inarritu knew the same earthy language? And he thought his grandpa was rustic…a bumpkin fellow.
Cold flashes stuck on the core of his eyes in a form of drop. Instantly, he searched for next train timings, which was going to his village, to his fields, to his roots. 

- Ankita Chauhan     



वक्त के साथ-साथ..

रोज़ सुनता हूँ
राह चलते मुसाफिरों से
वक़्त बदल गया है..
लोग बदल गए है

कभी कभी उनपर यकीन हो आता है
कहीं मैं भी तो नहीं बदल गया... 

लेकिन कुछ लम्हें, बार-बार मन की मुंडेर पर दस्तक देते हैं
लम्हें जिनमें कुछ यारियाँ बसी हैं
कुछ बचपन बसा है
कहीं हंसी खनकती है
तो कहीं यारों की बातें..

एक अरसे बाद उनका मिलना 
यकीन दिला देता है,
कि इस ‘बदले हुए कुछ’ को भी 
बेहद खूबसूरती से जी लेगें,
अगर यारियाँ साथ हो..


- अंकिता चौहान