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पथराई
नज़रों से देखा था मैंने तुम्हें
जैसे
तुम मेरे जिस्म से जाँ खींच कर ले जा रहे थे
उस
तिरंगे की गुनगुनी चादर में लिपटा तुम्हारा धड़कता दिल
अब
खामोश था।
तुम्हारे
सुर्ख होंठो पर खिलती रेखा बता रही थी..
अपना
सपना जिया था तुमने..
एक
सपना जो तब शून्यता में विलीन हो गया था..
लोगों
की नज़रों में बेबसी बिखरी थी
मेरी
नज़रों में तुम्हारे जिंदादिल सपने का अधूरा सिरा
चार
साल बीत गए..या मैं ही गुज़र गयी एक सदी की तरह्
पर
वो तुम्हारा सपना...तुम्हारा वजूद जिंदा है..औ’ जिंदा रहेगा..
मेरी
वर्दी बनकर..
- अंकिता चौहान
(आज सिरहाने के लिए लिखी गई थी)