वह सपने देखती है,
जागती आँखों से ज़िंदगी
के और आँख मूँद कर किताबो के।
वह बेसुध थिरकती है,
कभी बाबा की डाँट पर तो कभी माँ
के दुलार पर।
हर इंकार पर थोड़ा सहम जाती है,
अपनी ख्वाहिशों के पंख समेट इंतज़ार
करती है...
मजबूत करती है
हर वो पक्ष
जो उसे अपने सपने के शायद और करीब ले जाए।
कहने को बच्ची है..
लेकिन अपना बचपन, काफी पहले पीछे छोड़ आती है।
लादी हुई समझदारी से..
जब खुद को परेशान पाती है तो
नादानियों की झील में
एक डुबकी लगा,
बस एक कहानी गड़
लाती है...।