October 31, 2015

किताब समीक्षा: बात निकलेगी तो फिर: एक गज़लनामा - सत्या सरन

टाइटल: बात निकलेगी तो फिर – एक ग़ज़लनामा  
लेखक: सत्या सरन
अनुवादक: प्रभात रंजन
शैली: संगीत, जीवनी  
पब्लिशर: हार्परकॉलिंस इंडिया
स्त्रोत: निजी कॉपी
पृष्ठ: 160
रेटिंग: 5/5 

जिस आवाज़ को आप अपनी हर नब्ज़ में महसूस करते हों
जिस आवाज़ में छिपा दर्द अपने स्वभाव से परे जा, आपके दिल को सुकून पहुँचाता हो
जिस आवाज़ को सुने बिना आपकी रातें सुबह का सूरज लांघने में हिचकती हों  
जिस आवाज़ को सुनकर ऐसा लगे जैसे बस पहुँच ही गए घर किसी अपने के पास..
मेरे लिए यह आवाज़ जगजीत जी हैं।

एक अरसे बाद जब किताब हाथ में आयी तो आंखे किताब के कवर पेज से उलझ गयीं.. ज़गजीत जी की इतनी तस्वीरें इंटरनेट पर बिखरी रहती हैं फिर भी हर नयी तस्वीर को देखकर लगता है संगीत का अगर चेहरा होता तो तो हू-ब-हू ज़गजीत ज़ी से मिलता.. इतना ही सादा इतना ही संपूर्ण। लबों पर हल्की सी हंसी, चेहरे पर थोडी सी शरारत और आँखे शून्य, आँखें जहाँ हर कोई पनाह पाना चाहता हो, कुछ लम्हें ठहर कर उस आवाज़ को महसूस करना चाहता हो... देखना चाहता हो कि गज़ल गुनगुनाते वक़्त जगजीत जी को दुनिया वैसी ही दिखती होगी जैसी है.. या फिर वो अपने आवाज़ के आयामों में एक नया जहाँ तलाश लेते होंगे जहाँ दर्द भी मीठा लगता हो, किसी बिछड़े हुए रिश्ते की तरह।

यह जीवनी, जगजीत जी की ज़िंदगी के तह-दर-तह सफ़हे खोलती जाती है, जहाँ उस एक आवाज़ से ही नहीं, उस शख्सियत से भी रू-ब-रू होने का मौका मिलता है जिसे संगीत से अलग जानना शायद इतना आसां नहीं होता। जगजीत जी की ज़िंदगी के कुछ पहलुओं को इतना करीब से जानना जहाँ आपको रोमांचित करता है वही दिल में एक कसक रह जाती है की काश थोड़ा और जान पाते.. उनका बचपन, संगीत को लेकर उनका लगाव, जब गज़लें एक श्रोतागण तक ही सीमित थी तब एक परिपाटी से परे जाकर संगीत के क्षेत्र मे अपना ही नहीं गज़लों का भी अलग मुकाम बनाना, अपने लिए गए फैसलों पर, अपने सपने पर विश्वास करना, उस सपने को पूरा करने के लिए संगीत के एक नए युग की शूरूवात करना, माईक के पीछे का संघर्षरत जीवन। जगजीत जी के पारिवारिक जीवन के बारे में जानने का मौका मिलता है जहाँ चित्रा जी से भेंट, कुछ नए रिश्तों से जुड़ाव आदि से संबधित कुछ किस्से है और सफलता के दौर से गुज़रते हुए, अपने सपने के लिए नया आकाश बनाकर... उसपर अपनी आवाज़ से सतरंगी इन्द्रधनुष फेरते जगजीत।

किताब को जगजीत जी की जीवन कथा के अनुसार कई छोटे छोटे पार्टस में बाँटा गया है और बड़ी ही खूबसूरती से उन भागों के शीर्षक स्थापित किए गए। उनके जीवन का हर एक किस्सा उन्हीं की गायी एक गज़ल के साथ शूरू किया गया है, जो कि वाकई काबिल-ए-तारीफ़ है।

जगजीत जी के जीवन से उठाए गए अंशों का चित्रण इतने सलीके से किया गया है कि यह जीवनी.. आँखों के समक्ष चलती डॉक्यूमेंट्री जैसा महसूस करवाती है, जहाँ जगजीत जी थे, चित्रा जी थीं, और उनके अस्तित्व को पूरा करता उनका परिवार, उनका संगीत।

किताब के अंतिम कुछ पृष्ठ चित्रा जी की वर्तमान ज़िंदगी पर लिखे गये है.. उनके अंतर्मन में ऐसी ना जाने कितनी किताबें होगी कितने ही किस्से होंगे...कितना मुश्किल होता होगा उस आवाज़ को सुनना जो आपसे अलग नहीं थी और फिर एक दिन अचानक उस आवाज़ का बस याद बन जाना। आवाज़ जो पूरी दुनिया की रूह को सूकून पहुंचाती है वो शायद चित्रा जी के दिल में एक दर्द एक टीस पैदा करती होगी।


यह गज़लनामा उस शक्स की ज़िदंगी का क़तरा भर है.. जगजीत जी की हर एक गज़ल में, अल्फाज़ों के बीच उठती गिरती सांसे, ठहराव पाते लफ्ज़ और उस ठहराव पर अपने सुनने वालों की धड़कने बांध लेने वाले जगजीत जी को कुछ सफहों में समेट पाना, चंद लम्हों में बयां कर पाना उतना ही मुश्किल है जितना इश्क का दर्द की लौ से दूरी बनाए रखना।


सत्या सरन जी का बेहद शुक्रिया। आपके इस खूबसूरत प्रयास के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ। 



किताब से कुछ अंश: 

गुलज़ार ने खुलेआम उनकी तारीफ करते हुए कहा था मिर्ज़ा गालिब, जगजीत से परे के जगजीत हैं।



बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी

जगजीत जी ने इन आलोचनाओ को अपने ही अंदाज़ मे लिया मेरी आलोचना इसलिए की गई  क्योंकि मैंने गज़लों की धुन बनाने मे कई साज़ो का प्रयोग किया। लोग कहते हैं यह भी कोई गज़ल है इसके जवाब में, मैं उनसे पूछता हूँ आप बताएँ गज़ल कैसी होती है?


अगर आप कहते हैं कि बेग़म अख्तर की शैली गज़ल गायकी की अकेली शैली है तो मैं उसे नही मानता। उनकी शैली उनके महौल को बताती है, लेकिन इसका मतलब यह तो नही हुआ कि ये कोई फॉर्मुला है जिसे दूसरे भी अपनाएँ। उससे पहले बरकत अली की अपने शैली थी। यह मेरी अपनी शैली है, अब देखना यह है कि किस शैली को लोग स्वीकार करते हैं जिसे स्वीकृति मिलती है वही आगे चलकर परम्परा बन जाती है। अलग-अलग शैलियाँ साथ-साथ चलती रह सकती हैं।


मुझको मुझसे अभी जुदा न करो

(अपने बेटे विवेक की असामयिक मृत्यु के बाद..)

दुर्घटना के बाद एक तरह से वह संलग्नता पहले से मजबूत हुई, लेकिन एक तरह से उन्होंने खुद को मुझसे दूर भी कर लिया। पहले की तरह एक-दूसरे से वह रिश्ता नही रह गया। 

पहले कुछ हफ्तो के बाद जगजीत ने अपना तानपुरा उठा लिया। वे घंटों उसे बज़ाते, मानो संगीत की तान उनके दर्द की परतो के पार जा कर उनके दिल को फिर से जगा रही हो

स्मृतियाँ, दर्द और आँसू सब अपनी जगह थे लेकिन उन्होंने उन सबको अपने अन्दर थाम लिया उस ताकत के बल पर जो संगीत ने उनको दी थी।

यह किताब एक बेहद खूबसूरत ज़रिया है उस शख्स की ज़िंदगी के बारे में जानने का जिसकी आवाज़ ने आपकी कई रातों को शायद ज़िंदगी दी हो। 




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