लेखक – रवीश कुमार
चित्रांकन – विक्रम
नायक
पब्लिशर – राजकमल
प्रकाशन (सार्थक)
रवीश जी को किसी परिचय की आवश्यकता तो नहीं है फिर भी हम उन्हें “रवीश
कुमार NDTV” के नाम से जानते हैं। रवीश जी
की किताब ‘लप्रेक: इश्क़ में शहर होना’ हाथों
में आई तो कुछ पन्ने पलटते ही यकीन हो चला कि अच्छे दिन आ गए, जोक्स
अपार्ट पर किताब है ही इतनी खूबसूरत।
प्रेम अहसासों को लघु कथाओं में पिरोकर एक पेंटिग सी बना दी गई
है जिसमें विक्रम नायक जी का एनिग्मेटिक चित्रांकन किताब को पूर्ण करता है, जैसे
माँ शब्द में लगने वाला चन्द्र-बिन्दु जैसे गंगा-ब्रह्मपुत्र संगम पर कल-कल बहता
जल।
रवीश जी ने दिल्ली शहर को गाँव की नज़र से पेश किया है, वह
लिखते है –
“गाँवों
में घर नहीं खोता लेकिन शहर में खो सकता है।“
”दिल्ली
का अजनबीपन रोमांस का सबसे अच्छा दोस्त है।“
कुछ लघु कथाओं में गाँव के पीछे छूट जाने का दर्द तो कहीं शहरों की
हर गली में पनपता इश्क़ और उसके दस्तूर। रवीश जी लिखते हैं –
“इश्क़
में सिर्फ देखना ही नही होता, अनदेखा भी करना होता है।“
”जान-पहचान
की जगह से अनजान जगहों पर जाना ही इश्क़ में शहर होना है।“
“औकात
की हर लड़ाई का आधार अंग्रेज़ी थोड़ी ना है”
“हाकिम
से दुहाई है कि शहर में मोहब्बत मुल्तवी कर दें।“
प्रेम में होना सिर्फ हाथ थामने का बहाना ढ़ूढ़ना नहीं होता। दो लोगों
के उस स्पेस में बहुत कुछ टकराता रहता है।‘लप्रेक’ उसी
कशिश और टकराहट की पैदाइश है। जब आप
किताब के अंतिम पृष्ठ पर पहुंचते है तो लगता है जैसे अभी कुछ बाकी रह गया हो और
उंगलियाँ पीछे की ओर पन्ने पलटने लगती हैं, आंखें
खामोशी से चन्द लफ्ज़ों में सिमटा इश्क-शहर दोहराती हैं।
P.s - Book Source - Praveen Pandey. A Big Thank You!