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क़ाश !
मैं भी एक नज़्म होती,
तुम अपनी
डेस्क पर बिखरे
पन्नों में दबे हुए
अल्फाज़ों को साध
उतार लेते कागज़ पर
मुझे...
खिड़की से छनकर आती नै-रंग
(fascinating) हवा,
आफताबी सदा ( Sound)
जब जब तुम्हारे ज़हन
पर
दस्तक देते
उधार ले उनसे एक-आध
मिसरे
तुम गढ़ लेते मुझे...
फिर
अपनी उंगलियों में
उलझी हुई उस कलम को
खुद से जुदा कर,
उठा कर् सफ़हे (page) समेट मुझे
नज़रों के करीब लाते,
दोहराते मुझे
अपना साज़ देते..
चाँदनी के नूर में
पगा हुआ
इक शीरीं (Sweet) सा नाम देते...
काश !
मैं भी एक नज़्म होती
तो,
मेरे राहबर, ( Guide)
तुम मुझे अपनी
एक मुकम्मल शाम देते..!!