खामोशियों के
इर्द-गिर्द फिर ढूंढ़ना मुझे...
बहते तेरे पलों में
इक बेफिक्र लम्हा था,
आंखों में दर्ज़ कर
उसे
मैं,
नई उम्र दे गया...
कई हिज़ाबों से घिरा इक
शख्स तन्हा था,
आंखों में दर्ज़ कर तुझे
मैं,
एक दास्तां दे गया...
तुम्हें गिला रही अक्सर,
”कुछ कहते नहीं हो
तुम..!!”
तुम्हारी इस अदा को
भी
नज़ारा-सोज़ ( worth seeing ) करता रहा हूँ मैं...
खामोशियों के
इर्द-गिर्द फिर ढूंढ़ना मुझे
उन्हीं तस्वीरों के
इक खास रंग में निहां (
Hidden) हूँ मैं...
- अंकिता चौहान