September 18, 2025

Yashwant Vyas's Begumpul Se Dariyaganj | Penguin Swadesh | Non-Fiction

 



"साठ-सत्तर के दशक में सुपरस्टारियत भोग चुके पल्प लेखक वेदप्रकाश कांबोज के पास इस सिलसिले में बड़ा दिलचस्प बिंब है। देखो भाई, दिशाएँ कितनी होती है? चार? वैसे दस दिशाएँ कही जाती हैं। शास्त्रीय हिसाब से कहें तो 64 होती हैं। तो एक ही चीज को कितनी जगह से, कितने ही कोण से देखा जा सकता है। किसी चीज़ को नए ढंग से देखना ही लेखन है। आपने किसको कैसे देखा, वह नज़रिया ही उस चीज़ को नया कर देता है। यूँ तो कोई चीज़ 'ओरिजिनल' नहीं होती, बस अंदाज नया होता है। अनुभव से वह चीज बदल जाती है। लोकप्रिय लेखन का अपना आर्ट है। सिर्फ किताब पढ़ कर नई किताब तो नहीं लिखी जाती - सर्कस का शेर जंगल के बारे में नहीं बता सकता, जंगल की समझ तो चाहिए। लेखक होता है मधुमक्खी वह सब फूलों पर घूमता है, पराग इकट्ठा करता है, आखिरकार उसका शहद बनाता है।

वे मुस्कुराते हुए कहते हैं, मेरे पास ठीक से नकल की अक्ल नहीं थी, इसलिए ओरिजनल कहलाया जाने लगा। लुवरे म्यूजियम में, कहते हैं, बड़े-बड़े कलाकारों की पेंटिंग्स की नकल तैयार करने के लिए कई नए पेंटरों को काम मिलता था। सब बढ़िया कॉपी बना देते थे मगर एक पेंटर था जिससे कभी सही नकल नहीं बनती थी। वही आगे चलकर महान पेंटर हुआ। अगर लोग अंग्रेज़ी उपन्यासों से थीम लेते थे और उसका हिंदुस्तानी चरबा बनाते थे तो यह आर्ट भी कोई कम बात न थी। कपड़ा कहीं का हो, उसकी कटाई और सूट बनाना भी एक काम था। उस पर टाई लग जाए और पिन भी तो क्या बात है! वर्ना खाली टाई क्या करेगी? मोपासां से कुछ लिया, स्टेन बैक से कुछ लिया, कार्टर ब्राउन से कुछ, तो जो नई चीज बनी वह अपने आप में एक नई, और नायाब बन गई। पॉपुलर लेखन में यह एक कमाल की बात रही है।"

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आज यशवंत व्यास जी की किताब 'बेगमपुल से दरियागंज' पढ़ी। दिलचस्प गद्य! दिल, दिमाग़, आँखों को बांधे रखता है। भारतीय भाषाओं में पल्प फिक्शन का इतिहास और विस्तार। नॉन - फिक्शन है लेकिन सिनेमाई अंदाज़ में लिखी गई है। पढ़ते हुए बैकग्राउंड में वही थ्रीलिंग म्यूज़िक महसूस होता है जो 80-90 दशक की फिल्मों में हुआ करता था। पढ़ते हुए इतना कुछ पता लगा, ऐसी दुनिया जिससे मैं बिल्कुल वाक़िफ़ नहीं थी। इस बरस फरवरी में, सुरेंद्र मोहन पाठक जी की पैंसठ लाख की डकैती पढ़ी थी। पल्प फिक्शन से मेरा इतना ही नाता है। कृश्न चंदर जी की एक करोड़ की बोतल को भी इसी विधा में रख सकते हैं। यह लगभग पूरी किताब पेंसिल से रंग गई है।

ग़ुलज़ार साब के साथ आत्मीय संवाद पर आधारित यशवंत जी की किताब बोसकीयाना मेरी प्रिय किताबों में से एक है। अब उस सूची में 'बेगमपुल से दरियागंज' का नाम भी जुड़ गया है। यह बात अचरज में डालती है कि गंभीर साहित्य के इतर भी एक दुनिया हुआ करती है, और वह भी कितनी रोचक।

शुक्रिया, पवन दा, हस्ताक्षरित प्रति के लिए।