शीर्षक – धर्मद्वंद
लेखक – शबनम गुप्ता
प्रकाशक- प्रभात प्रकाशन (2022)
भाषा- हिन्दी
विधा – माइथो-फ़िक्शन
पृष्ठ - 152, हार्डकवर
किताब ऑनलाइन उपलब्ध है
‘द्रौपदी की आँखों
में करुणा तो नहीं थी, ईर्ष्या थी क्या?’
शबनम गुप्ता के पहले
उपन्यास ‘धर्मद्वंद’ की ये आखिरी पंक्ति है, हालांकि ये कहानी द्रौपदी की नहीं है, ना ही कौरवों
और पांडवों के बीच चलते द्वंद की। पौराणिक युग और उससे जुड़े कई संदर्भों ने इस
उपन्यास को जमीन ज़रूर दी है, पात्र और घटनाएँ महाभारत युग से
लिए गए हैं लेकिन उपन्यास पढ़ते हुए मुझे यही लगा, जैसे ये
कथा आज की है, इसी वर्तमान समय की।
किताब के पहले दृश्य में
दिखाया गया है कि कहानी के मुख्य पात्र, आचार्य वासु को
मृत्युदंड की सजा दी जा रही है। उनके ऊपर राजदरबार के मंत्री की हत्या का आरोप है।
शीघ्र ही कहानी अतीत की गलियों की राह पकड़ते हुए, वासु के
बचपन की ओर ले चलती है।
जहां वासु के ब्राह्मण होने पर क्षत्रियों की तरह अस्त्र-शस्त्र की विद्या सीखने पर सवाल खड़े किए जा रहे होते हैं। वहाँ वासु तार्किक क्षमता से अपनी बात रखता है कि ‘समाज एक ही जगह पर स्थिर नहीं खड़ा रहता, उसे निरंतर आगे बढ़ना चाहिए, भविष्य की तरफ। इसलिए रेखाओं में बांधकर खुद को सीमित नहीं रख सकते। पिता के कार्यभार को संभालने के लिए यदि पुत्र में योग्यता या रुचि नहीं है, तो उसे अपने पसंद का कार्य चुनने की छूट होनी चाहिए।’
एक यही नहीं लेखक ने इस
पौराणिक कथा को आधार बनाकर ऐसे कई प्रसंग उठाए हैं जिनके ऊपर मनन जरूरी है। हर
सिक्के का दूसरा पहलू होता है, ये किताब उसी दूसरे नजरिए को
स्थापित करती है, साथ ही ̶कन्यादान
का क्या औचित्य, स्त्री शिक्षा की जीर्ण स्थिति और महत्व, धर्म की वास्तविक परिभाषा – पर भी बात होती है।
वासु एक ऐसा मजबूत किरदार
है जो शास्त्रों में लिखे नियमों पर भी प्रश्न उठाने का साहस रखता है। उसका जीवन लक्ष्य साफ़ है, वह ऐसे निर्भीक और निडर योद्धा की एक पीढ़ी खड़ी करना चाहता है, जो सिर्फ़ आदेश लेना नहीं जानते, बल्कि सही गलत की
समझ और उसे बोलने का साहस भी रखते हों, वह धीरे धीरे गुरूकुल
को सशक्त और आत्मनिर्भर बनाना चाहता है।
जब कौरवों और पांडवों के
बीच बिगड़ते सम्बन्धों को संभालने के लिए कृपाचार्य को राजदरबार की ओर प्रस्थान
करना पड़ता है तो वह वासु को अपने गुरुकुल का आचार्य बना जाते हैं।
वह वासु की प्रतिभा से
वाकिफ़ हैं, गुरुकुल का आचार्य बनने योग्य, विचारधारा और व्यक्तित्व दोनों ही उसमें हैं, वह जानते
हैं कि वासु में सामथर्य और साहस का अद्भुत मिश्रण है जैसे कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी
पर सूर्य और चाँद साथ दिखते हैं, ऐसे ही कई युगों के बाद कोई
ऐसा जन्म लेता है जो ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों हों।
वासु के लिए दुविधा तब
पैदा होती है जब दुर्योधन उसके सामने राजदरबार में पद संभालने का प्रस्ताव रखता है, वजह साफ थी उसे वही व्यक्ति चाहिए जो युधिष्ठिर को प्रिय हो। वासु के
निमंत्रण को ठुकरा देना कैसे उसकी नियति को बदल कर रख देता है, आगे की कहानी इसी टकराहट पर बढ़ती हैं।
‘सिर्फ धर्म के
अखाड़े में खड़े होना ही बहुत नहीं है, वहाँ भी सही-गलत, उचित-अनुचित की एक रेखा है। संदर्भ आवश्यक होता है। जो कर्म एक परिस्थिति
में उचित है, वही दूसरी परिस्थिति में अनुचित, बल्कि अन्यायपूर्ण भी हो सकता है। परिधि और परिभाषा केवल हमारी समझ के
लिए है, हमें सीमित करने के लिए नहीं। परिस्थिति और संदर्भ
भाषा का विस्तार कर देते हैं।‘
विडम्बना यह है कि वासु की
यही तार्किक बुद्धि और उचित-अनुचित का ज्ञान उसके जीवन की दशों-दिशा बदल देते हैं
लेकिन यह उसका चुनाव है जैसे युधिष्ठर का था दौपदी को चौसर के बिछे खेल में दांव
पर लगा देना।
चारुलता कौन थी? वीरभद्र की क्या ज़िद थी? इतने बड़े गुरुकुल का
आचार्य होते हुए भी वासु को राजदरबार के मंत्री पर शस्त्र उठाने की जरूरत क्यूँ
पड़ी?
और आखिर में जाते-जाते
किताब एक प्रश्न छोड़ जाती है, ‘क्या
धर्म की रेखा में होते हुए भी जो पांडवों ने किया वह सही था?
और क्या जो आचार्य वासु ने किया उसके लिए उन्हें सजा मिलनी चाहिए थी?
किताब की भाषा सहज और
सुंदर है, एक टाइम पीरियड को दर्शाने के बावजूद लेखनी में प्रवाह बना रहता है, जो पाठक को पात्रों से जोड़े रखता है। पढ़ते हुए मेरे जो भी अनुभव रहे
मैंने उन्हें यहाँ दर्ज़ करने की कोशिश की है, ऐसी कई सतहें
हैं जिनको इस लेख में नहीं ला पाई, जिन्हें आप किताब के जरिए
बेहतर ढंग से जान पाएंगे। शबनम गुप्ता जी को उनकी पहली किताब के लिए, अशेष शुभकामनाएँ!
‘सदियों से चली आ
रही मान्यताएँ सही हैं, यह आवश्यक नहीं। सवाल उठाने आवश्यक
हैं, वत्स! अतीत को पीठ पर लादकर भविष्य की तरफ नहीं बढ़ा जा
सकता।’
किताब की लीफ़ पर
धर्मद्वद्वं एक रोचक
काल्पनिक कथानक है। जिस समय में भारतवर्ष पांडवों और कौरवों के दो पालों में बँटता
दिख रहा था, उस समय में एक ऐसा आचार्य था जो किसी राजवंश के
नहीं, देश के सर्वोपरि होने की बात करता था। जब धर्म अपने
नियत खूटे में बँधा हुआ था, तब वो उसकी सीमा रेखा के आगे
जाकर, एक नई परिभाषा लिखता था जहाँ धर्म और विवेक का संगम
होता है । जिस परिवेश में स्त्री को वस्तु की तरह पाँच भाइयों में बाँट दिया गया
था, उसी परिवेश में वह स्त्री शिक्षा और सशक्तिकरण का पाठ
पढ़ाता था। जब समाज, वर्ण और वर्ग में बँटा हुआ था, तब वो जन्म नहीं, कर्म से मनुष्य की पहचान बनाने में
क्रियार्थ था। ये उस काल्पनिक आचार्य की कहानी है, जिसका नाम
वासू था। भारतीय पौराणिक आख्यान पर केंद्रित मर्मस्पर्शी तथा पठनीय कृति, जो आपको जीवन के आदर्श और मानवमूल्यों से परिचय कराएगी।
लेखक के बारे में
शबनम गुप्ता ने सोफिया
कॉलेज से अंग्रेजी (ऑनर्स) में ग्रेजुएशन किया और पोद्दार इंस्टीट्यूट ऑफ
मैनेजमेंट से एम.बी.ए. की डिग्री हासिल की है । एक स्वतंत्र लेखिका के रूप में
उन्होंने प्रमुख प्रकाशनों के लिए बच्चों से संबंधित पुस्तकें लिखी हैं। उनकी
पुस्तक 'सेलेब्रटिंग पेरेंटिंग) काफी लोकप्रिय हुई। उन्होंने एम ई पत्रिका
(डी.एन.ए. समूह ) के लिए लेख लिखे हैं और सॉफ्टवेयर डेवलपर्स के लिए भी सामग्री
लेखन किया है। इस पुस्तक को जबरदस्त सराहना मिली | सन् 2014 में वह नीलेश मिश्रा को टीम का हिस्सा बनीं और रेडियो के मशहूर शो “यादों का इडियट बॉक्स ' के लिए उन्होंने 50 से भी अधिक कहानियाँ लिखी हैं। काल्पनिक कहानी पर आधारित ' धर्मद्वन्द! उनका पहला उपन्यास है। वह अपने पति और बेटी के साथ नई दिल्ली
में रहती हैं ।