September 11, 2020

शिशिर सोमवंशी का कविता संग्रह: आत्मा का अर्धांश


 


शीर्षक: आत्मा का अर्धांश
लेखक: शिशिर सोमवंशी
प्रकाशक: किताब महल
विधा: कविता-संग्रह
पृष्ठ: 200
ISBN: 978-
9387253841

 

बीते दिनों शिशिर सोमवंशी जी की कविताओं का नया संग्रह पढ़ा, ‘आत्मा का अर्धांश’। एक लेखक के लिए आत्मा का आधा हिस्सा उसका रचना-कर्म हैं और आधा हिस्सा उसके द्वारा जिया प्रेम। शिशिर जी का लेखन, कविता और प्रेम को एक ही धरातल पर साझा करता है, जैसे उनके लिए कविता कहना और प्रेम करना दो अलग अलग बातें ना होकर एक ही हों।  

 प्रेम कविताएँ कहना जितना सरल दीखता है अक्सर होता नहीं, एक ही भाव को परिभाषित करने के लिए नए आयाम खोजने होते है, नए अनुभव नया अनुवाद माँगते हैं, एक का प्रेम दूसरे से अलग कैसे हो? इस एहसास को लौट-लौट ताज़ा मिजाज़ में ढालना वाकई एक कला ही तो है, और इस पैमाने पर शिशिर जी का कविता-संग्रह ‘आत्मा का अर्धांश’ खरा उतरता है।

 इस संग्रह को आठ भागों मे संजोया है मानो ये कविताएँ प्रेम के आठ ग्रहों के फेरे लगा रही हों, यात्रा शुरू होती है ‘अभिसार’ से, फिर ‘संताप, आस्था, संवाद, आग्रह, उसका स्वर, सामीप्य’, और आखिर में ‘मधु वृष्टि’।

 अपनी एक कविता में शिशिर जी, प्रेम की अस्मिता को स्वर देते है, और दूसरी कविता में अतंस में गूँजती कुछ यादों को ‘तुम जैसे गीत’ से सम्बोधित करते हैं। अपनी एक रचना में वह खुद को असफल कवि कहते हैं, जो जितनी बार कविता लिखे और ‘तुम’ पर आकर ठहर जाए। अनजिए प्रेम की बैचेनी, नवेले सामिप्य में होने वाला संकोच, भावनाओं के आहत होने पर उठने वाले सवाल, प्रेम में होने.. ना होने का अर्थ खोजता मन।

 शिशिर जी की काव्य-भूमि व्यापक है, जो नर्म और सवेंदनशील लहज़े को थामे दीखती है। इनकी कविता ‘बीज़’ मन की भीतरी तह को छूती है, जिसे आज के सन्दर्भ में ‘मूव ऑन’ कहते है, जो सब कुछ खत्म कर देता है, फिर भी कितना कुछ है जो बचा रह जाता है।

ये कविताएँ पढ़कर लगता है कि, रचनाकार रिश्ते के बीच की उलझन को किस हद तक समझता है, अगर उलझन में हो साथी का मन, तो दूसरे के लिए कैसे नींद इक ख्वाब बन जाती है।

 शिशिर जी की कविताएँ अपने प्रेम को पा जाने का दम नहीं भरती, वो संवाद करती हैं, आग्रह करती हैं, इक नीले गुलमोहर के छाँव में इंतजार करती हैं।

 ‘मेरे स्वप्न’ इस कविता में लेखक के मन के अन्दर झांका जा सकता है, प्रेम इतना हौसला देता है कि उसे किसी दूसरे सिरे की जरूरत ही नहीं, प्रेम दूसरे पर हक नहीं माँगता वो तो पतंगे सा है, खुद के अस्तित्व तक को भुला देने वाला।

 कविताओं की भाषा शैली क्लीष्ट नहीं, शब्दों में सहज़ता लिए हुए है, जो सरल मन का प्रतीक है, उनकी कविताओं में फूल हैं, शाखें हैं, नदी है, धाराएँ है और इक सवेंदनशील हृदय है, जो प्रेम में मन को पढ़ता है, और चुप को सुनता है। यहाँ इसी कविता-संग्रह से  कुछ अंश साझा कर रही हूँ।

 

प्रेम की अस्मिता

नेत्रों में मुखर

लालसा नहीं

वरन हृदय में

शमित आस है

  — अस्मिता

 

कुछ गीत

छू लेते है अंतस

गूंजते रहते हैं

हवाओं में

वर्षों तक

फिर लौट आते हैं

अपने मयूरपंखी

स्पर्श से

मन का कोना

कोना सींचने को

तुम जैसे कुछ गीत है।

    — तुम जैसे गीत  

 

 असफल कवि हूँ

कितने यत्न से

शब्दों को

कागज़ पर

लिखता हूँ और

हर बार वही

एक कविता

बन जाती है — तुम

   — असफल कवि

 

कनखियों से

संकोंची सा

देखता हूँ

सुख से

जी लेता हूँ उन्हें

जिन्हें जीना था

जिया नहीं मैंने

    — चोरी

 

अर्थहीन है कि

सम्पूर्ण विश्व

मेरे बारे में

क्या सोचता है

तुम्हारे एक पल

उस सोच के साथ होने

भर से मैं

अपना अर्थ खो देता हूँ

     — अर्थ

 

विशाल वृक्ष

का बीज

महीनों महीने

बर्फ, मिट्टी में

दबा रहता है,

प्रेम हो,

अथवा व्यक्ति

दृष्टि से ओझल

होने भर से

मृत नहीं

मान लेना चाहिये।

    — बीज

 

अपनी उलझन

को तुम

अपनों में

बाँट कर

सोच कर

विचार कर,

सो जाना

थक हार कर।

जागता रहेगा

कोई उलझा हुआ— 

कि आज

तुम उलझन में हो।

   — उलझन

 

 हर दिन गुजरा हूँ

ऐसी राहों पे तुम्हारी

शीतल प्रकृति का

आभास करते हुए

नीले गुलमोहर के सहारे

आज भी आस लिए

निकलूंगा फिर से

बोलो किस मोड़ पे

मिलोगे तुम?

    — नीला गुलमोहर

 

 पता है तुम्हें

मेरे स्वप्न

क्यों विलक्षण हैं?

उन्हें मेरे अतिरिक्त

कोई नहीं देखता,

तुम ही नहीं।

और उनमें

तुम्हारे अतिरिक्त

कोई नहीं होता,

मैं भी नहीं।

 — मेरे स्वप्न

 

‘आत्मा का अर्धांश’ शिशिर सोमवंशी जी का तीसरा कविता-संग्रह है, उनके लिखे से मेरा परिचय उनके पहले काव्य-संग्रह ‘मोहभंग के बाद’ से हुआ था। उनका लेखन एक ऐसी यात्रा है जिसमें वो निंरतर अपने भीतर उतर रहे हैं। अशेष शुभकामनाएँ, नित नया रचते रहें।  

 लेखक के बारे में

पेशे से वानिकी वैज्ञानिक शिशिर सोमवंशी का बचपन कुमाउँ की रमणीक वादियों में बीता। प्रकृति के सानिध्य एवं यथार्थ की अनुभूतियों से उपजी कविताएँ यदा-कदा मुखर होती रही किंतु जीवन की व्यस्तता में सक्रिय लेखन संभव ना हो पाया। विगत कई वर्षो से शिशिर की कविताएँ नियमिल ब्लोग पर लेखन और कुछ कविताएँ पत्रिकाओं में निंरतर प्रकाशित होती रहती हैं। वर्तमान में हिन्दी-शोध-पत्रिका “शोध तरू” का संपादन कर रहे हैं।

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