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Book Review: Do Log by Gulzar
लकीरें हैं तो रहने दो,
किसी ने रूठ कर गुस्से में
शायद खींच दी थीं
–
गुलज़ार
वो लोग ये जानते थे कि देश का बँटवारा होने जा रहा है। हिन्दुस्तान का एक टुकड़ा अब से
पाकिस्तान कहलाया जाएगा। बॉर्डर क्या है, रिफ्यूजी कौन हैं, कौन सी राजनीति खेली गयी, वे सब जानते थे ̶ नहीं जानते थे तो सिर्फ़ इतना कि, अपना घर, अपनी ज़मीन कैसे छोड़ी जाती है?
“हम एक थे, एक चला गया - अब हम दो लोग हैं”
विभाजन पर लिखी गुलज़ार साब की यह किताब, कई किरदारों के बीच लुका-छिपी खेलती हुई, राजनैतिक गतिविधियों
से ज़्यादा, बँटवारे का दर्द झेलते लोगों की मनोदशा को दिखाती है।
किताब ने बाजार में आने के साथ ही साहित्य जगत में ज़रा सी हलचल पैदा की। कंटेट की वजह से नहीं, अपनी लेंथ की वजह से। कुछ साहित्यकारों व समीक्षकों ने इसे नॉवेल मानने से ही इंकार
कर दिया। कहा गया, किताब छोटी है। इसकी कहानी कुछ ही पृष्ठों में सिमट गयी। हाँलाकि देखा जाए तो “दो लोग” एक नॉवेल होने के सारे क़ायदे पूरे करती है।
किताब के पब्लिशर हार्परकांलिस ने जब इसका पेपरबैक संस्करण लेकर आए तो गुलज़ार साब ने खुद कहा “हर छोटे क़द का आदमी बौना नहीं होता”
हाँलाकि मुझे किताब में किरदार कुछ ज़्यादा लगे। जैसे ही आप दो किरदारों के बीच रिश्ते के डायनेमिक्स
को समझते हैं, और उनसे जुड़ाव महसूस करना शुरू
करते हैं कि तभी कहानी में दो किरदार और जुड़ जाते हैं, इससे किताब तो आसानी से आगे बढ़ती जाती है लेकिन कुछ किरदारों की जिंदगी को, थोड़ा और जानने की इच्छा वहीं पीछे छूट जाती है। हो सकता है किताब शुरू करते वक़्त ये बात आपको थोड़ा परेशान करे, लेकिन कहानी का यूँ
परत-दर-परत खुलना नयेपन का अहसास करवाता है।
अगर इस किताब की पृष्ठभूमि पर गौर करें, तो कहानी शुरू होती है, पाकिस्तान के कैम्पबैल्पुर में।
1947 की सर्दियाँ, धुंध भरी रात और कच्चे रास्तों पर धूल उड़ाता एक ट्रक। ट्रक में बैठे लोग, फज़ल और करम सिंह, जो कि स्कूल मास्टर
हैं। ट्रक ड्राईवर फौजी, और उसका दोस्त लखबीरा। थोड़े खडूस लाला जी और उनका परिवार। अपने बूढ़े दादा
को संभालता एक आठ-दस साल का बच्चा। एक तवायफ़ और भी कई ऐसे बाशिन्दे
जो इस बात से बेखबर बैठे हैं कि ये बंटवारा मुल्क़ ही नहीं उनकी जिंदगी भी बदल के रख देगा।
सब इसी सोच के साथ घर से निकले हैं कि ये कुछ ही महीनों की राजनैतिक उठा-पटक है, और कुछ नहीं। अपना घर भी कभी छोड़ा जाता है, फिर लौट आएँगे। एक
लकीर ही तो खींची है। लोगों के मन में चलती यही उलझन, सीनों में दबा
विस्थापन का यही दर्द पात्रों को वास्तविकता के करीब रखता है।
किताब का पात्र करम सिंह, अपने दोस्त फज़लू से पूछता है कि क्या
देश कोई स्लेट है जिसे जिन्ना तोड देगें? कहीं देश भी बंटा करते हैं?
गुलज़ार ने अपने अतीत में गहरे उतरकर इस किताब को लिखा है। उन्होंने विभाजन के
उस दर्द को भारी भरकम शब्दों के नीचे नहीं दबने दिया। बहुत ही सुलझा हुआ लेखन है।
आम बोल-चाल की भाषा में संवाद लिखे गए हैं, हर शब्द सामने एक दृश्य खींचता है। यही लेखन शैली इस किताब को दिलचस्प बनाती है।
ऐसा नहीं है कि गुलज़ार साब ने पहली बार, विभाजन के बारे में कुछ लिखा हो। उनकी अनेकों नज़्में अनचाहे बंटवारे का दर्द बयाँ करती हैं— आँखों को वीज़ा नहीं लगता, सपनों की सरहद नहीं
होती।
इसके अलावा उनके कहानी-संग्रह ‘रावी पार’ में, पहली कहानी ‘खौफ’ इसी विषय पर थी। एक यासीन नामक लड़का शहर में हालात बिगड़ते देख, खाली ट्रेन में चढ़ता है और ट्रेन में
घुसते हर इंसान को संदेह से देखता है। अजीब बात ये थी कि उसे भीड़ में इंसान नज़र ही नहीं आते, दिखते हैं तो सिर्फ़ हिन्दू या मुसलमान। कहानी का अंत आपको
एक अजीब कशमकश में डाल देगा।
गुलज़ार साब के साथ-साथ, विभाजन पर कई लेखको ने दिल खोलकर लिखा, जैसे मंटो, कमलेश्वर, कृष्णा सोबती। फिर भी गुलज़ार साब का लिखा ना जाने क्यूँ सीधे दिल पर
महसूस हुआ, शायद इसलिए कि वो घटनावी ब्योरों को कभी अहसासों पर हावी नहीं होने देते।
अपनी किताब ‘दो लोग’ के जरिए गुलज़ार साब ने, अरसे से जमी चुप्पी को आवाज़ दी है। किताब खत्म
होने के बाद पाठक के अंदर एक सवाल छूट जाता है कि, 1947 में राजनीति खेली गयी, देश का बंटवारा हुआ, उस दिन क्या सिर्फ़ देश बंटे थे, लोग नहीं? एक लाईन खींच देने से जब देश, लोग ज़मीनें बाँटी जा सकती हैं, तो आँखों में पलते ख़्वाब क्यूँ नहीं ?
गुलज़ार साब को विभाजन के इतने दशकों बाद ये नॉवेल लिखने की ज़रूरत क्यूँ पड़ी? 1947 में उन्होंने ऐसा भी क्या देखा होगा, जो अभी तक उनके अंदर किसी कील की तरह चुभता है। सवाल मुश्किल है। जवाब शायद इसी किताब के जरिए मिल जाए।
Picture Credit: Google |
May 01, 2018
Borges Says
I'll try,
to make more mistakes,
I won't try to be so perfect,
I'll be more relaxed...
I'll take fewer things seriously..
I'll take more risks,
I'll take more trips,
I'll watch more sunsets,
I'll swim more rivers,
I'll go to more places I've never been
I'll eat more ice ...
I will travel light
I'll try to work bare feet at the beginning of spring till the end of autumn,
I'll watch more sunrises ...
If I have the life to live.
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