ग्यारह
बारह बजे के बीच रोज घर के मेन गेट पर वो आवाज लगाते हैं। गुलाबी सर्दी आते ही उनका
बाग़ हरे कच्चे अमरूदों से भर जाता है।
जैसा
उन्होंने बताया सुबह जल्दी उठकर वो एक तसला भर अमरूद तोड़ कर अपने चौके में रख लेते
हैं। दिन बढ़ने पर घर के आदमी बाग़ से अमरुद की गाड़ी भरकर निकल जाते है, मंडी की तरफ।
ये
एक तसला अमरूद उन बाई जी की एक दिन की कमाई है। सुबह ग्यारह बजे तक खाना बनाकर चल
देते है पच्चीस-तीस किलो अमरूद सर पर लादे।
“सर
संभाल कैसे लेता है इतना बोझ, मेरी
तो गर्दन ही लटक जाए?”
“आदत हो गयी बिटिया” कहकर उस दुप्पटे के अंदर से मुस्कुराती
आँखे झांकती है, हल्के से।
किसी
को अहसास करवाओ की वो जो कर रहा है वो हर कोई नहीं कर पाता, तो उसके चेहरे की रंगत नोटिस कीजिएगा।
ये जो थोडा थोड़ा
करके पैसे इकठ्ठे होते हैं, इनसे उनकी सर्दी निकल जाती
है। उन्हें अपने घर के आदमियों से पैसे नहीं मांगने पड़ते।
मेरी आँखों में उन
लड़कियो की तस्वीर घूम रही थी जो कुछ ना करते हुए भी इंस्टाग्राम भर देती है
ब्रांडेड सामान से।
यहाँ इन बाईजी को
सर्दी के कुछ कपडे लेने के लिए भी अपने पति से पैसे मांगने में शर्म आ गयी। अजीब
दुनिया है, अजीब लोग है।
एम बी ए नहीं किया।
सेल्स ट्रिक नहीं आती, बस मनुहार करते है प्यार से। कल फिर से आएंगी, आवाज
लगाएंगी.. "बिटिया अमरूद लेगी के...कच्चे-कच्चे, मीठे-मीठे"