शीर्षक: जापानी सराय
लेखक: अनुकृति उपाध्याय
पब्लिशर: राजपाल एंड संस
विधा: कहानी-संग्रह
पृष्ठ- 128
आईएसबीएन: 978-9386534729
कहने के बीच जो अनकहा है, वह कहानी है या वो
छोटे-छोटे पल जिन्हें शब्द देना हम जरूरी तक नहीं समझते, उन्हें बेबाकी से कह
देना?
कहानी लिखने-कहने के जितने भी नियम हैं, अनुकृति
उपाध्याय की ये किताब “जापानी सराय” हर उस बने-बनाए ढर्रे को तोड़ती है।
मौलिक अंदाज, सधा हुआ लेखन और संजीदा एहसासों का
ताना-बाना, जानकर सचमुच हैरानी हुई कि ये अनुकृति उपाध्याय की पहली किताब है, पहला
कहानी-संग्रह।
हाँलाकि मैं इनका काम पहले भी प्रभात रंजन जी
द्वारा संपादित ‘जानकीपुल’ में पढ़ चुकी थी, लेकिन कहानियों के संकलन का हाथों में होना एक अलग अनुभव दे गया,
इनकी किस्सागोई बाँधे रखती है, और ये लेखक के लिए उपलब्धि है।
कहानियाँ इसलिए भी दिलचस्प लगीं कि लेखिका ने एक
दो पात्रों के बीच ही सम्पूर्ण कहानी को कह दिया। परत दर परत पात्रों के अंदर चलती
उलझनों को खोलना बाँधना, फिर उसे एक उम्मीद तक जाकर छोड़ आना, ये ऐसा है जैसे
अनुकृति अपने पाठक की हथेली पकड़कर उन्हें नई दुनिया से मिलवा रही हों, दुनिया जहाँ
रेज़ा रेज़ा दरकता रिशता भी है, एकाकीपन से जूझती हुई जिंदगियाँ भी, कहीं विस्मय से
भरा प्रेम है तो कहीं ठहराव की तलाश।
अनुकृति उपाध्याय के महिला पात्र बेबस, लाचार
नहीं है, वो सपना देखना जानते हैं, अपनी सोच रखते हैं, दुनियावी मान्याताओं, नोशंस
के बावजूद खुद के लिए निर्णय लेते हैं।
कहानी प्रेजेंटेशन, इसी बुनियाद पर खड़ी
है, मीरा एक करियर ओरिएंटेड लड़की है, शादी के बाद उससे ये अपेक्षा की जाती है कि
वो अपने काम से ज्यादा परिवार को महत्व दे, वो देती भी है लेकिन जब काम और परिवार
के बीच चुनाव करने का वक्त आता है तो वो असहज हो जाती है, वो क्या निर्णय लेती है
ये कहानी का मूल तत्व है, लेखिका ने मुख्य पात्र को कहीं भी रोता बिखलता नहीं दिखाया,
फिर भी एक मजबूत किरदार रचा, नपे तुले शब्द नहीं, धारदार लेखन।
किताब की शुरुआत जापानी सराय नाम की कहानी
से होती है जो कि इस किताब का शीर्षक भी है, कहानी दो अजनबियों की है, जो कि एक
बार में मिलते है, बातचीत होती है, कोई साझा अतीत नहीं है लेकिन वर्तमान साझा कर
रहे है, अकेलेपन को बाँटने वाल कोई मिल जाए इससे खूबसूरत एहसास कुछ भी नहीं,
परेशान लड़की है, लड़का तो खुशमिजाज़ दिखता है, लेकिन बातों बातों में लड़के के अंदर
चलती घुमड़न सामने आती है, सच हम एक खुशनुमा चेहरे के पीछे कितनी पीड़ा छुपाए फिरते
हैं, लड़का कहता है—
‘हम दरअसल उतने उलझे हैं नहीं जितना खुद को
समझते हैं, अमूमन खाने पीने से आधी समस्याएँ सुलझ जाती हैं बाकी की आधी कह देने
से...’
‘जानती हो सब कुछ कह डालने के लिए अजनबियों से
अच्छा कोई नहीं होता, खासकर वह अजनबी जो अगली सुबह जापानी सी को जा रहा हो, जहाँ
हो सकता है कि उसे कोई शार्क खा जाए’
‘मैं जापान के लिए अपने प्यार को उसके लिए
प्यार समझ बैठा, वह क्या समझी मैं आजतक नहीं जान पाया, ऐसा अक्सर हो जाता है
क्यूँकि हम अपने को समझने में उतना समय भी खर्च नहीं करते, जितना एक शर्ट चुनने
में’
हमारी जिंदगियों में कितना कुछ चलता है, जिंदगी
कहती है ये हो रहा है नहीं बताती ये क्यूँ हो रहा है, एक अच्छी कहानी इसलिए भी
पढ़नी चाहिए कि वो हमें खुद से मिलवाती है, रिश्ते की बारिकियों समझाती है।
कुल दस कहानियों के संकलन जापानी सराय की कहानी
‘इंसेक्टा’ की ये पक्तियाँ पढ़िए, इतना प्रभावी लेखन आपको कहानी के एक बिंदु
से दूसरे बिंदू तक बेरोकटोक पहुचाँता है, साथ ही ठहरकर पढने पर उकसाता है, पात्रों
के भाव, चाहे वो अंर्तमन में चलती यात्रा हो या चेहरे पर दिखती भाव-भंगिमाएँ, यही
बारिकियाँ अनुकृति उपाध्याय की लेखनी को बाकी लेखकों से जुदा करती है, प्लॉट के
तौर पर भी क्लीशे, स्टीरियोटाईप्स को तोड़कर एक अलग धरातल, अलग रेंज खोलती हुई।
“जब से रात वाले हमले शुरू हुए हैं, एक भी रात वह पूरी नींद नहीं सो पाया है. रात भर
खिड़की की सन्धों, दीवार की दरारों, फर्श की छेदों से दाख़िल होने वाले असंख्य
हमलावरों से जूझतारहता है, यह जानते हुए भी कि
यह लड़ाई वह शुरू से ही हारा हुआ है. एक अकेले की जत्थों-के-जत्थों घुस आये
आतताईयों के सामने क्या बिसात? वे आनन
-फानन में कमरे पर काबिज हो जाते है और वह चारों ओर से घिरा, पलँग पर खड़ा अख़बारों के मुट्ठे बना जैसे-तैसे
उन्हें ऊपर चढ़ आने से रोकता है. ‘ब्लडी’ अभिमन्यु भी एक बार लड़कर मर गया था, यहाँ तो रोज़ – रोज़ … उसने
दांत किचकिचाए. अभिमन्यु के बाप ने कम से कम उसे लड़ना तो सिखाया था… या शायद उसकी माँ ने सिखाया था? ‘एनी वे’, अभिमन्यु
को जिसने भी सिखाया हो, मुझे इन दोनों ने
कुछ नहीं सिखाया, न बचना, न अटैक
करना… सिखाना क्या, उन्हें मुझपर विश्वास ही नहीं. “कुछ हो तो कभी तो किसी और को भी दिखे, सिर्फ तुम्हें ही को क्यों दिखता है ये सब? हमें तो कुछ नहीं दिखता दिखते? बेकार की बेवकूफी…’
किताब की दूसरी कहानी “चैरी ब्लॉसम” मुझे
बेहद पंसद आयी, लेखिका अपने पात्र के जरिए ही सही लेकिन कितनी सटीक बात कहती हैं
“अपने आप से बातें करने में बुराई ही क्या है
अपनी बात अपने से ही कह सुन पाना जरूरी है, बेहद जरूरी।“
कहानी कान में मीठी सी धुन घोलती है, क्या फर्क
पड़ता है कि कथा टोक्यो की जमीन पर लिखी गयी या भारत में, मानवीय संवेदनाएं वहीं हैं,
पात्र के जरिए एक नए कल्चर से मिलना खूबसूरत लगा।
“रेस्टरूम” कहानी में मुख्य पात्र का सोचना है:
कहना सुनना, बाँटना कहाँ होता है? कोई भी और इस
क्षण के इस एकल अवसाद को महसूस नहीं कर सकता और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ना
चाहिए लेकिन पड़ता है।
अजनबियों से भरी भीड़ में भी जैसे वो सबको पहचानती
है, रेस्टरूम में जब वो बेसिन के पास कुछ महिलाओं को आपसी उलझन बाँटते देखती है
लगता है जैसे उसके दुख को किसी और के दुख ने सहला दिया है, कम शब्दों में लिखी गयी
ये कहानी, लेखक की प्रतिभा को विस्तार देती है।
बस यही कि अब मैं वो शावर्मा नहीं खा पाउँगी....
और कुछ भी नहीं, बस एक अफसोस...”
शावर्मा और किताब की अंतिम कहानी ‘डेथ सर्टिफिकेट’
ये दोंनो कहानियाँ एक अलग जोन में लिखी गयी है, रोमांच से भरा वातावरण, पाठक को आश्चर्य
में डालता है, कहानी डेथ सर्टिफिकेट की मुख्य पात्र जो अपने मरने के बाद की यात्रा
को जी रही हैं, कहती हैं—
“पोस्टमार्टम? किसलिए? मरने के बाद इस बात से
क्या फर्क पड़ता है कि मैं सुबह नाश्ते में क्या खाया? पुलिस के बजाय मेरे परिवार
को इत्तिला देनी चाहिए अपनी माँ की चिंता है मुझे। बच्चे कॉलेज में हैं दोनों,
यूएस में अपने जीवन मे व्यस्त, पति भी... ज्यादा सोग नहीं मनाएँगे मेरा।
मगर मेरी माँ उन्हीं की वजह से मन कसमसा रहा है
वे अकेली उस पुराने घर में, जहाँ कई सालों गाढ़े जमे दुख की बोसीदा गन्ध भरी है,
मेरे मरने की खबर कैसे झेलेंगी?
मुझे अपनी मृत्यु पर कोई खास एतराज नहीं जीवन ठीक
ठाक था जमा हुआ काम और घर, बच्चे जो बात कम बहस ज्यादा करने लगे थे, पति जो बाहर
खुश घर में अनमना रहता था, कुछ भी ऐसा नहीं कि सहना बर्दाश्त के बाहर हो, ऐसा भी
नहीं कि छूटना ही बर्दाश्त के बाहर हो....सिर्फ मेरी माँ... ये कतई फेयर नहीं कि
जिसने मुझे जन्म देने का कष्ट उठाया उन्हें मेरे मरने का दुख भी झेलना पड़े...”
इनके अलावा हरसिंगार के फूल, छिपकली, जानकी और
चमगादड़, हर कहानी के उपर कितना कुछ लिखा जा सकता है, घूँट-घूँट पिए जाने वाली
कहानियों का संग्रह है जापानी सराय।
राजपाल एंड संस से प्रकाशित अनुकृति उपाधयाय की
इस जीवंत कृति के लिए अशेष शुभकानाएँ।
लेखक के बारे में
अनेक वर्षों तक हाँगकाँग में बैंकिंग और निवेश के
सैक्टर में कार्यरत रहने के बाद अनुकृति उपाध्याय ने अपने कहानी संग्रह ‘जापानीसराय’ के जरिए साहित्य-जगत में प्रवेश किया है। वह लिखती हैं इस आशा में कि इस
रचनात्मक जोड़ने-तोड़ने में वह कुछ अनाम ढूँढा जा सके जो शायद है भी या नहीं भी।