दो पौधे मिट्टी में रोंपकर, थोड़ा खांसते हुए, मैं कुर्सी पर आकर टिक
गयी। पलकों में भारीपन महसूस हुआ। ये थकान पचास की उम्र को छू चुके शरीर की नहीं
थी। मेरा मन थक चुका था। कभी इंतजार करते हुए, तो कभी किए जा रहे इंतजार को दुनिया
की नजरों से छुपाते हुए।
धुंधलाई नजरों से मैंने आसमान को देखा। गहरे-जामुनी बादल बरसने को
तैयार खड़े थे। हथेली से घुटनों को सहलाते हुए मैंने तनु के कमरे की ओर नजर डाली। खिड़की
अब-तक बंद थी।
“ये लड़की भी जाने कब बड़ी होगी, आठ-बजे तक कौन सोता है” चेहरे पर गुस्से में घुली-मिली मुस्कान आ गयी।
सुबह होने पर मैं अक्सर भूल जाया करती थी कि इस घर में मेरे अलावा एक
और शक्स है....तनु। तनु को सिर्फ एक रिश्ते में बाँधना मुमकिन नहीं था। वो मेरे
लिए क्या थी ये सिर्फ मैं ही जानती थीं, मेरी वर्क-पार्टनर, शाम की चाय पर चियर्स
कहने वाली दिलपंसद साथी या मेरे इकलौते बेटे कबीर की मंगेतर...