सबसे अजीब मुझे वो मैट्रो लगी। जिसका
लेडीज़ कम्पार्टमेंट जैसे गुल्लक में बजते सिक्के। कुछ दिन जरूर मुझे उलझन महसूस
हुई...फिर लगा जैसे मैं इन लड़कियों को पहचानती थी। हर किसी के चेहरे पर फिक्र, आँखों
में बैचेनी, जैसे घर की दहलीज पार करने के बावजूद भी वो अब-तक कहीं अटकी थीं। यही
सब तो था जो मैं जोधपुर में छोड़कर यहाँ दिल्ली चली आयी थी। मेरी बचपन की दोस्त
आमेरा के पास।